मेरे मन में दादी की सबसे पहली छवियाँ तब की हैं जब मैं चार या पाँच वर्ष की थी । अपने पुणेवाले घर की बालकनी में मोढ़े पर बैठकर धूप में बाल सुखाते हुए उनकी छवि मुझे याद आती है । सुबह की धूप में बीच-बीच में चमकते चाँदी के तारों वाले उनके लंबे काले बाल ज़मीन तक लोटते थे । मुझे लगता था कि वे ज़रूर मेरी प्रिय परीकथा की नायिका रैपुन्ज़ेल हैं, जो अब बूढ़ी हो चुकी है ।
बचपन में कल्पना ऊँची उड़ान भरती है और मेरी कल्पना कुछ ज़्यादा ही ऊँचा उड़ती थी । मैं बड़ी आसानी से उन्हें सुंदर युवा राजकुमारी रैपुन्ज़ेल के रूप में देखती थी जिसे उसकी दुष्ट सौतेली माँ ने एक ऊँची मीनार में क़ैद कर रखा था । उसने अपने लंबे-लंबे बाल नीचे लटका दिए थे जिन्हें पकड़ कर उसका प्रेमी राजकुमार उसे क़ैद से छुड़ाने के लिए ऊपर चढ़ आया था । हाँ, अपने दादा को सफ़ेद घोड़ा दौड़ाते हुए उसे छुड़ाने आनेवाले बाँके जवान राजकुमार के रूप में देखना ज़रा मुश्किल था क्यों कि उनकी उम्र तब सत्तर के लगभग हो चुकी थी और उनका सख्त़ चेहरा देखकर हमें डर लगता था । वैसे देखें तो दादी की वास्तविक जीवन गाथा इस परीकथा से बहुत अलग नहीं थी । वे भी अपने समय के दकियानूसी सामाजिक नियमों और लैंगिक असमानताओं की ऊँची मीनार में क़ैद थीं और शिक्षा तथा समझदारी उनकी लंबी लटें थीं जिन्होंने उन्हें उस क़ैद से मुक्त कराया ।
जब मैंने यह मान लिया कि दादी माँ किसी समय राजकुमारी थीं, तो बचपन के भोले तर्क के हिसाब से उनकी पोती होने के नाते मैं भी तो एक नन्ही राजकुमारी ही थी । इस कल्पना में मुझे बड़ा मज़ा आता था । अपने किंडरगार्टन स्कूल में मैंने नाटकों में स्लीपिंग ब्यूटी और स्नो ह्वाइट जैसी राजकुमारियों की भूमिकाएँ निभाई थीं, इसलिए इस भूमिका की मैं बिलकुल अभ्यस्त भी थी । मेरा एक फ़ोटो है जिसमें मैं अज्जी के बाल सँवार रही हूँ । इस फ़ोटो से आपको मेरा नज़रिया बिलकुल समझ में आ जाएगा । उस समय मेरी एकमात्र चिंता यह थी कि मुझे विरासत में वे लंबे-लंबे बाल नहीं मिले थे, इसलिए मुझे अगर कभी मीनार में क़ैद किया गया तो मुझे भाग निकलने का कोई और तरीक़ा ढूँढना होगा ।
उनके केश अपने आपमें तो लंबे थे ही, मगर उनके छोटे क़द पर वे और भी लंबे लगते थे। वे मुश्किल से साढ़े चार फ़ीट की थीं । उन्हें नीची चौकियों पर ही बैठना पसंद था, इसलिए उनके बाल ज़मीन चूमते ही रहते थे। मुझे लगता है, नीचे आसनों पर बैठना उन्हें इसलिए पसंद था कि इससे उन के पैर ज़मीन पर टिक सकते थे । जब वे सामान्य ऊँचाई की कुर्सियों पर बैठती थीं तो उनके पैर अधर में झूलते नज़र आते थे। इस पुस्तक में दिए गए अनेक पुराने चित्रों में आपको यह दिखाई देगा ।
मेरे दादाजी – जो तात्या कहलाना पसंद करते थे – ख़ासे लंबे थे और मेरे पिता उन्हीं पर गए थे। मेरी माँ की लंबाई भी अपनी पीढ़ी की भारतीय स्त्रियों की औसत लंबाई से अधिक है और मैं खुद साढ़े पाँच फ़ीट की हूँ – अपनी अज्जी से पूरी बारह इंच लंबी ! बचपन में, अपने आसपास सारे बड़े लोगों की सहमानेवाली ऊँचाई के बीच दादी माँ का छोटा क़द बड़ा अपना-सा लगता था । शायद यह भी एक कारण हो कि छुटपन में उनसे बात करना और अपनी निजी बातें साझा करना मुझे इतना आसान लगता था । उनमें एक बड़ा गुण था – वे हमारी बातें सचमुच बड़े ध्यान से सुनती थीं; जो कुछ भी हम कहते उसमें दिलचस्पी लेती थीं; सुनकर आलोचना नहीं करती थीं, न उपदेश देती थीं । अगर हम मना करते तो हमारी गुप्त बातें भी औरों के सामने उजागर नहीं करतीं । कितने वयस्क ऐसे होते हैं जो बच्चों को ऐसा सम्मान दें ?
अज्जी से हमेशा साफ़-सुथरेपन की सुगंध आती थी । किसी ख़ास तरह की ख़ुशबू नहीं, क्योंकि जहाँ तक मेरी जानकारी है, वे किसी परफ़्यूम या पाउडर का इस्तेमाल नहीं करती थीं – बस एक ताज़गी और स्वच्छता की सुगंध। आप समझ रहे हैं ना ? मैंने कभी भी उन्हें मैला-कुचैला या अव्यवस्थित नहीं देखा । उनके बाल हमेशा सलीक़े से सँवारे हुए और चोटी या जूड़े में बँधे होते थे और उनका चेहरा एकदम स्वच्छ और एक स्वस्थ आभा से दमकता रहता था ।
वे ललाट पर कुमकुम की एक बड़ी-सी लाल बिंदी लगाती थीं और हर सुबह स्नान के बाद जब वे यह लगाने बैठती थीं तो मैं मुग्ध होकर देखती रहती थी । पहले तो वे एक छोटा-सा दर्पण और अपने कुमकुम के सामान की कोथली लेकर बैठ जातीं । फिर चाँदी की एक छोटी-सी डिबिया से अपनी अँगुली द्वारा मोम निकालकर अपने ललाट के बीचोंबीच गोल-गोल फैलातीं । फिर चाँदी की दूसरी डिबिया से सूखा कुमकुम लेकर पहले उसे अँगूठे और तर्जनी के बीच ज़रा-सा मसलतीं और तब उसे बड़ी सावधानी से ललाट पर मोम केआधार पर थपक लेतीं । फिर उसे हौले-हौले ऐसे फैलातीं कि वह माथे पर चवन्नी के आकार का बिलकुल गोल टीका बन जाता । वह बिंदी पूरे दिन ज्यों की त्यों बनी रहती थी – न फैलती न मिटती । पता नहीं, यह करिश्मा वे कैसे साधती थीं ।
भारत में लाल बिंदी सुहाग की निशानी होती है और हिंदू विश्वास के अनुसार ललाट पर कुमकुम लगाने की प्रक्रिया से अंतर्नेत्र खुल जाते हैं । इससे स्त्री की दृष्टि स्पष्ट और विवेक जाग्रत हो जाती है और वह जीवन के दैनिक फ़ैसले पूरी ईमानदारी और आत्मविश्वास से ले सकती है । गृहिणी के लिए यह क्षमता बहुत ही आवश्यक होती है क्योंकि वह पूरे परिवार की धुरी होती है; और माँ के लिए भी, जो अपनी संतानों – और उनकी संतानों की भी – प्रथम गुरु और आदर्श होती है । हम लोगों की तो मौज है क्योंकि आज बाज़ार में हर रूप, रंग और आकार की चिपकानेवाली बिंदियाँ मिल जाती हैं – पर इनमें वह मोहकता और प्रभाव कहाँ !
मेरे नन्हे हाथों को दादी माँ का स्पर्श बड़ा प्यारा लगता था । उनकी झुर्रियों भरी काग़ज़ी त्वचा भी छूने में बड़ी कोमल और शीतल लगती थी । उनका रंग साँवला था और मेरे हाथ-पैरों की तुलना में काफ़ी गहरा । फिर भी, न जाने किस अनजाने कारण से मैं हमेशा उन जैसी दिखने को तरसती थी । जब वे मुझे नहलाती थीं तो उनके हाथ काफ़ी मज़बूती और चुस्ती, पर साथ ही बड़ी कोमलता से मेरी देह को रगड़ते थे। वे मेरे कानों के पीछे के हिस्से को भी रगड़-रगड़कर साफ़ करती थीं और मुझसे भी पैरों की उँगलियों के बीच की जगह को इतना रगड़वाती थीं कि वहाँ की त्वचा गुलाबी होकर सनसनाने लगती थी । सबसे मज़ेदार बात तो यह थी कि उनका बल हर बच्चे को आधी – या अधिक से अधिक पौन बाल्टी पानी से नहला देने पर रहता था । उनका कहना था कि पानी की कमी रहती है और हमें हमेशा संसाधनों की बचत का ध्यान रखना चाहिए । हमारे शरीर पर पड़ती जलधारा के हल्केपन की क्षतिपूर्ति के लिए वे हमें नहलाते समय बहते पानी जैसी सिस्कारती विचित्र-सी ध्वनि अपने मुँह से निकालती रहती थीं ।
पानी की यह कंजूसी मेरी समझ में नहीं आती थी क्योंकि नल जब भी खोलो, ज़ोरों से गरगराते पानी की धार फूट पड़ती थी । पर उनके लिए पानी बड़ी अमूल्य संपदा थी, क्योंकि गाँव में बिताए बचपन में उन्होंने कुएँ से पानी खींच-खींचकर दैनिक काम चलाया था और सूखे तथा अकाल से हुई मौतों और तबाही को अपनी आँखों से देखा था । आज मैं बचपन में उनके पढ़ाए हुए पाठको ज़्यादा अच्छी तरह से समझ और सराह सकती हूँ । उन्होंने हमें सभी प्राकृतिक संसाधनों की कीमत समझाई और उन्हें सदा सँभाल-सँभालकर ख़र्च करने की शिक्षा दी । अगर सारी दुनिया की दादियों नेअपनी नई पीढ़ियों को ऐसी शिक्षा दी होती तो आज इस धरती पर पानी की इतनी भयंकर कमी नहीं होती । मुझे कहीं भी टपकते नल या भरी बाल्टियों से भरभरा कर बहता पानी, या घर अथवा बाहर कहीं भी पानी की बरबादी दिखाई देती है तो मैं बेचैन हो उठती हूँ ।
उन्हें वस्तुओं की उपयोगिता समाप्त होने पर उनके नए-नए रूपों में उपयोग की अद्भुत कला आती थी । वे कभी भी कुछ भी बरबाद नहीं होने देती थीं । रसोई में फलों और सब्जियों की धोवन का पानी बाल्टियों में सहेज लिया जाता और उनकी बालकनी में गमलों में लगे पौधों को सींचने के काम आता । रसोईघर का कचरा, सब्जियों के छिलकेऔर डंठल आदि इकट्ठे कर के घर के पिछवाड़े लगी सब्जियों की बाड़ी के लिए कम्पोस्ट खाद बनाई जाती थी । दूध की प्लास्टिक की थैलियाँ धो-सुखाकर रखी जातीं । बचा हुआ खाना महरियों को देने में ये थैलियाँ काम आती थीं । जो पुरानी साड़ियाँ और कपड़े अच्छी हालत में होते थे उन्हें या तो साधनहीन रिश्तेदारों और हिंगणे की छात्राओं में वितरित कर दिया जाता था या उनके टुकड़े जोड़कर थिगलियों वाली रजाइयाँ बना ली जाती थीं । वे हमलोगों को हमेशा कपड़े के ही थैले, जिन्हें मराठी में ‘पिशवी’ कहते हैं, लेकर चलने देती थीं । प्लास्टिक के पैकेट या फेंकू लिफाफों पर उन्होंने पाबंदी लगा रखी थी । कभी भी कुछ भी न बरबाद होता था, न फेंका जाता था । दीवाली और जन्मदिन के पुराने कार्डों को सहेज लिया जाता था और हमलोगों को उनके चित्र काटकर नए कार्ड बनाने में अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा का उपयोग करने की सलाह दी जाती । जब हम बड़े होने लगे तो हमें इस बात से बड़ी चिढ़ होने लगी और हम उनका मजाक भी उड़ाने लगे थे । पर आज मैं अपनी प्रज्ञाचक्षु दादी की दूरदृष्टि को सचमुच समझ और सराह सकती हूँ ।