बाबा को किसी भी काम में ज़रा-सी भी कसर बर्दाश्त नहीं होती थी । उन्होंने अपने लिए बहुत ऊँचे प्रतिमान तय कर रखे थे और अपने परिवार तथा सहकर्मियों से भी वे उसी स्तर की उम्मीद रखते थे। हम सभी कभी न कभी उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरनेका तनाव झेलते थे, पर साथ ही उनकी शाबासी पाने के लिए अतिरिक्त चेष्टा करने में चूकते भी नहीं थे। अफ़सर के तौर पर उनसे निभाना ज़रूर बड़ा कठिन होता होगा क्योंकि वे हर छोटी-छोटी बात में भी ख़ुद घुसते थे और लोगों को उनकी ग़लतियाँ तुरंत बताते चलते थे। सही है कि उनका व्यवहार शिष्ट होता था और गुस्से में भी उनके मुँह से अपशब्द नहीं निकलते थे, पर किसी की प्रशंसा भी वे आसानी से नहीं करते थे न काम अच्छा होने पर वे किसी तरह की कृतज्ञता जताते थे। आई उनकी इस कमी को काफ़ी हदतक पूरा कर देती थीं क्योंकि वे हमारे काम की खुलकर तारीफ़ करती थीं । अपने इस सकारात्मक सहारे के द्वारा वे हमें और भी अच्छा कर दिखाने के लिए प्रोत्साहित करती थीं ।
बाबा की तुनकमिज़ाजी जगजाहिर थी और हम सावधान रहते थे कि उनके गुस्से को भड़का न दें । आवाज़ के लहज़े में थोड़ा-सा फ़र्क या भौंहों के हलके-से ख़म से ही उनकी नाराज़गी ज़ाहिर हो जाती थी । उन्हें कभी भी हमें कोई सख़्त सज़ा देने की या ग़लत व्यवहार के लिए फटकारने की ज़रूरत नहीं पड़ी । हमारे रिश्ते के भाई-बहनों और मित्रों में उनकी शोहरत सख़्तमिज़ाज पिता की थी ।
दूसरी ओर आई बहुत ही कोमल हृदय थीं और हम तीनों बहनों ने उन्हें काफ़ी सताया भी । छठे-छमाहे जब कभी उनका धैर्य जवाब देता भी तो हमें बस डाँट देतीं, या कभी-कभी कूल्हों पर चपत लगा देतीं । इससे शरीर पर तो कोई ख़ास चोट नहीं लगती पर मन ही मन हम अपने बर्ताव पर शर्मिंदा हो जाती थीं । हमने मार कभी नहीं खाई ।
बाबा के स्वभाव का एक विनोदी पक्ष भी था । उन्हें चुटकुले सुनाने या अपने मज़ेदार अनुभवों का बयान करने में बड़ा मज़ा आता था । दरअसल चुटकुलों की अपेक्षा उनका अंदाज़ेबयाँ ज़्यादा मज़ेदार होता था । उनके चेहरे की कुछ पेशियाँ फड़का करती थीं और शरीर में भी अनजाने ही कुछ ऐसी हरक़तें होती थीं जो जोश में आकर बोलते समय कुछ और मुखर हो जाती थीं । इससे उनके किस्सों की रोचकता और बढ़ जाती थी । वे तारीख़ और समय सहित छोटे से छोटे ब्यौरे को भी बिलकुल सही तरतीब में सुनाना पसंद करते थे। इससे उनके किस्से अक्सर बहुत लंबे हो जाते थेऔर कभी-कभी ब्यौरों की इस भरमार में असली मज़े की बात कहीं दब ही जाती थी । उम्र बढ़ने के साथ उनमें अपने प्रिय चुटकुलों या किस्सों को बार-बार दोहराने की प्रवृत्ति बढ़ गई । इससे उकताकर उनके नाती-नातिनें इधर-उधर खिसकने लगते थे। उनलोगों के इस प्रकार कन्नी काटने की वजह बाबा की समझ में आती ही नहीं थी ।
बाबा को काम का नशा था । सरकारी नौकरी में बहुत कम लोग इतनी देर-देर तक और इतनी लगन से काम करते हैं । बाबा जितनी गहराई तक जाकर बारीकी से काम करते थे उससे और उनकी बुद्धिमत्ता से उनके अफ़सर बहुत प्रसन्न रहते थे और परिणामस्वरूप उन्हें दफ़्तर की और भी अनेक जिम्मेदारियाँ सौंप दिया करते थे।
जब बाबा गोरखपुर में सिगनल तथा टेलीकम्यूनिकेशन (S&T) में चीफ़ इंजीनियर थे तो एक बार वह लगातार चौथी शाम को बहुत देर से घर लौटे। दफ़्तर से उनके लिए तैनात ड्राइवर राकेश ने माँ से मिलकर गुज़ारिश की कि वे उसकी पत्नी को समझाएँ कि उसे घर लौटने में रात नौ बजे से भी ज्यादा देर इसलिए हो जाती है कि दफ़्तर बंद होने का समय भले ही ५:३० बजे हो, पर डॉ. खोत ८:३० बजे घर लौटते हैं । उसने बताया कि पत्नी ने तूफ़ान खड़ा कर रखा है कि वह किसी और औरत से फँस गया है । उसके घर की शांति की ख़ातिर आई ने उसका अनुरोध मान लिया । मुझे लगता है कि हर काम बिलकुल चाक-चौबंद करने और काम के प्रति संपूर्ण समर्पण की आदत के चलते बाबा जीवन का आनंद पूरी तरह नहीं ले पाए । उन्होंने आराम करना तो सीखा ही नहीं था, सामाजिक मेल-जोल और दोस्तियों के लिए भी उनके पास समय नहीं था । फलस्वरूप कभी-कभी वे बिलकुल अकेले हो जाते थे।
बाबा काफ़ी ख़ूबसूरत थे और उनकी पोशाक हमेशा चुस्त-दुरुस्त होती थी । वे पोशाकें सीमित संख्या में ही रखते थे। उन्हें गहरे रंगों की पतलूनें और हलके रंगों की कमीज़ें पहनना पसंद था जो गरमी के मौसम में आधी बाँहों वाली होती थीं और ठंडे मौसम में पूरी बाँहों वाली । बाक़ायदा सूट और टाई वे केवल बहुत औपचारिक मौकों पर ही धारण करते थे। बाद की ज़िंदगी में वे काम पर जाते समय और ज्यादातर पारिवारिक उत्सवों में सफ़ारी सूट पहनने लगे थे। हर सप्ताह अपने जूते पॉलिश करना उन्होंने अपना मामूल बना लिया था और जब हम बहुत छोटी थीं तब वे हमारे स्कूलवाले जूतों पर भी पॉलिश कर दिया करते थे। वे हमेशा क़ायदे से सजे-सँवरे रहते थे। दाढ़ी वे सफ़ाचट रखते थे पर एक छोटी-सी मूँछ ज़रूर रखते थे– जो चार्ली चैपलिन की मूँछ जैसी लगती थी । वे चाहते थे कि आई सिर्फ़ साड़ियाँ ही पहनें और आई ने उनकी इस इच्छा को मान भी दिया । अपनी बेटियों को भी वे पारंपरिक पोशाकों में ही देखना पसंद करते थे। हमारा जीन्स और टी-शर्ट पहनना उन्हें बिलकुल नापसंद था ।
खोत आनुवंशिकी, संतुलित भोजन और तमाखू तथा शराब से परहेज़ आदि के कारण बाबा डायबिटीज़, उच्चरक्तचाप और हृदय रोग जैसी (जीवन शैली सेसंबद्ध) बीमारियों से मुक्त रहे। पचहत्तर वर्ष की आयु होते-होते उन्हें हाथों में डीजेनेरेटिव आरथ्रोपैथी, अज्जी से वंशानुक्रम में मिली मैकुलोपैथी और पार्किन्संस की बीमारी का हलका असर होने लगा था । इसी उम्र से उन्हें वृद्धावस्था से सम्बद्ध मनोभ्रंश (डिमेंशिया – Dementia) भी आरंभ हो गया और उनकी मानसिक सक्रियता का तेज़ी से ह्रास होने लगा । मेरा निश्चित मत है कि इसका कारण उनके प्रखर मस्तिष्क के अनुपयोग से जन्मी अक्षमता थी । साठ वर्ष की उम्र पर सेवा निवृत्ति के बाद उनके दिमाग़ को समुचित उत्तेजन नहीं मिल पाता था । उन्होंने कोई शौक नहीं पाला, न कोई खेल खेलते थे, न अपने आपको व्यस्त रखने के लिए उन्होंने परामर्शदाता, अध्यापक या समाज सेवक जैसा कोई काम शुरू किया । उनके सत्तरवें जन्मदिन पर हम उन्हें एक कंप्यूटर भेंट करना चाहते थे, पर स्वयं दूरसंचार इंजीनियर होने के बावज़ूद उन्होंने वह लेने से इनकार कर दिया ।
ख़ुशी-ख़ुशी अपने कर्तव्य का पालन करने में वे हमारे आदर्श थे। पूरी निष्ठा और समर्पण से उन्होंने अपने वृद्ध माता-पिता की बेहतर से बेहतर देखभाल की और अपनी विकलांग बहन की भी जो बीस वर्ष से भी अधिक समय तक हमारे साथ रहीं । इस बातपर मुझे आज भी हैरत होती है कि आत्मनिर्भरता को इतना महत्व देनेवाली मेरी अज्जी ने नलू आत्या को पोलियो के बावज़ूद आत्मनिर्भर और आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाने पर क्यों कभी बल नहीं दिया ! शायद इस संदर्भ में स्पष्ट-स्पष्ट विचार करने और निर्णय लेने में माँ की ममता और अपनी प्रथम संतान के प्रति अतिरिक्त संरक्षा की भावना आड़े आ गई हो ।
आई इन पारिवारिक दायित्वों के पालन में अंत तक बाबा की निष्ठावान संगिनी बनी रहीं । बाबा भी आई का बराबर सम्मान करते रहे और उनके प्रति अपने कर्तव्य का पालन भी । अपनी तीनों पुत्रियों के लिए उन्होंने प्रेरक पिता की भूमिका निभाई । हम तीनों बहनों के पेशे से जुड़ी जिम्मेदारियों और यात्राओं के कार्यक्रम में सहायता के लिए, हमारे नन्हे बच्चों की देखभाल की ख़ातिर वे झाँसी, बंगलौर और पठानकोट की यात्राएँ करते रहे । परिवार में जिसने भी उनकी मदद चाही उसे कभी निराश नहीं होना पड़ा । हमारे विस्तृत परिवार के सदस्य और रेलवे में उनके सहकर्मी रहे लोग आज भी उनकी न्याय बुद्धि और हर क्षेत्र में उनकी ईमानदारी की चर्चा करते हैं ।