मेरी अज्जी और मैं (१९/२१)

समाज और आर्थिक स्थिति की सारी बाधाओं को अपने निजी संकल्प और जीवट के बल पर पार कर दिखाया था ।१ जनवरी २०१३ को संयोग से मैं पुणे में थी । छः दिन में मेरे जीवन का एक प्रमुख पड़ाव आनेवाला था – मेरा पचासवाँ जन्मदिन ! मुझे क्या पता था कि यह नया वर्ष मेरे माता-पिता के लिए अंत की शुरुआत थी । इस ग्रह पर आई और बाबा, दोनों की ही यात्रा समापन की ओर बढ़ रही थी । दोनों के ही स्वास्थ्य में कुछ गंभीर समस्याएँ उठ खड़ी हुई थीं और दिसंबर २०१२ के अंत में आई को कुछ गंभीर तकलीफ़ों के कारण अस्पताल में भर्ती भी होना पड़ा था । मैं और मेरी दोनों बहनें – माधुरी और रश्मि यह तय करने में उलझी थीं कि इन चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में क्या करना सबसे बेहतर रहेगा ।

लगभग पचास की उम्र हो आनेपर भी हृदय से मैं बच्ची ही थी । कोई भी बच्चा माता-पिता का प्रेम और सहारा चाहता ही है और उसे इनकी ज़रूरत भी होती है । वह निर्व्याज प्रेम ही है जिसके सहारे हम मनचाहा कर जाते हैं, जो मन में होता है वह साफ़-साफ़ कह देते हैं, और मूर्खतापूर्ण और कभी-कभी स्वार्थी व्यवहार और बचकानेपन के बावज़ूद बच निकलते हैं ! हम जानते हैं कि माता-पिता हमें बहुत चाहते हैं और हम चाहे कुछ भी करें उनका प्यार बना ही रहेगा । हममें से कई जन उनकी उपस्थिति को लेकर निश्चिंत रहने की भूल करते हैं । हमें लगता है कि वे हमेशा बने ही रहेंगे । हम या तो भूल जाते हैं या जानबूझकर इस विचार को दिमाग़ से निकाल देते हैं कि कोई भी इंसान इस धरती पर एक सीमित समय के लिए ही आता है । मुझे लगता है कि हम अपने माता-पिता की मृत्यु जैसे दुर्विचार को दिमाग़ में आने ही देना नहीं चाहते हालाँकि मृत्यु ही जीवन का एकमात्र निश्चित सत्य है ।

आज २०१४ की पहली जनवरी है और जब मैं यह लिख रही हूँ तो यह सोचना ही बड़ा अजीब लग रहा है कि मैं बस फ़ोन उठाकर आई और बाबा को नववर्ष की शुभकामनाएँ नहीं दे सकती । यह सोचना ही असह्य लगता है कि उनकी प्रेमल वाणी अब मैं केवल अपने हृदय में ही सुन सकूँगी, बाह्यजगत में नहीं । फ़ोन पर आई का अभिवादन होता था ‘साईं राम’ और बाबा का अधिक पारंपरिक ‘हेलो, कशी आहेस ?’ (हलो, कैसी है ?) । अब ये कभी नहीं सुन सकूँगी । अपने अनाथ होने का अहसास कलेजे पर घूँसे-सा लगता है !

आज आई को परलोक सिधारे छः माह हो गए और छः सप्ताह हुए बाबा भी उनके पास चले गए । कई बार ऐसा होता है कि यह तथ्य मैं भूल ही जाती हूँ । लगता है कि वे अभी पुणे में अपने घर पर होंगे या मेरी बहनों से मिलने मुंबई या दिल्ली गए होंगे । लगता है कि बस फ़ोन उठाने की देर है और उनसे बात हो जाएगी, या फिर कभी भी हवाई जहाज पकड़ कर उनसे मिलने जाया जा सकता है ।

बाबा और आई, दोनों ने मुझे अज्जी की कहानी लिखने को प्रोत्साहित किया था । यह पुस्तक पढ़कर उन्हें बेहद गर्व और आनंद होता, पर यह शायद होना ही नहीं था । मुझे महसूस होता है जैसे वत्सल मुस्कान  के साथ मेरे कंधे के ऊपर से झाँकते हुए वे देख रहे हैं कि अपनी इस समय की भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए उपयुक्त शब्दों की तलाश में मैं कैसे जूझ रही हूँ ! उनके प्रति प्रेम और भावनाओं से भर कर मेरा हृदय छलक रहा है और विरोधाभास यह है कि उसी समय उनके अभाव में यह बेहद ख़ाली और एकाकी भी हो रहा है ! कलेजे का यह अथाह सूनापन बड़ा भारी लगता है – और ऐसा क्यों होता है यह समझना मेरे बस की बात नहीं है । मेरी बहनें और बेटी भी इस सच्चाई से सामंजस्य बैठाने की कोशिशों में लगी हैं । शायद समय ही इस घाव को भर सके और इतनी कुशलता से कि हम सबके लिए इस स्थिति से उबर पाना संभव हो ।

ईश्वर के प्रति और अपने माता-पिता के प्रति मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ कि उन्होंने इस कठिन समय से गुज़रने और इस क्षति को सहने के लिए मुझे शक्ति दी । सच तो यह है कि हम सभी चाहते हैं कि हमारे माता-पिता सदा-सदा हमारे साथ रहें । हमारी उम्र कितनी भी हो गई हो, अपने माता-पिता के लिए तो हम बच्चे ही होते हैं और उनके निस्वार्थ प्रेम और सुरक्षा का घेरा हम सदा अपने इर्द-गिर्द चाहते हैं । माता-पिता के गुज़रने के बाद ही हमें मज़बूरन बड़े और बालिग़ होना पड़ता है । हमें होश आता है  कि हर बात की जिम्मेदारी अब अंततः हमारी है ।

माँ और बेटी, बल्कि पिता और बेटी के रिश्तों में भी समय के साथ अंतर आता जाता है । पहली संतान के जन्म के साथ दंपती का भी माता-पिता के रूप में जन्म होता है और वयस्क के रूप में किसी का जन्म तो वास्तव में माता-पिता की मृत्यु के बाद ही होता है । पाँच की उम्र से लेकर पचास की उम्र तक माता-पिता और अपने बीच आजीवन चले जटिल और स्नेहमय संबंधों के विभिन्न चरणों और विभिन्न पक्षों– शारीरिक, भावनात्मक और आर्थिक – को मैं स्पष्ट–स्पष्ट निर्दिष्ट कर सकती हूँ ।

संतान की माता-पिता पर पूर्णनिर्भरता : जन्म से लेकर ५ वर्ष की आयु तक;

माता-पिता पर पूर्णविश्वास और उन्हें ही सर्वश्रेष्ठ मानना : ६ से ११ वर्ष की आयु तक;

बदलता व्यवहार और प्रचलित विश्वासों को चुनौतियाँ : १२ से १८ वर्ष;

नव-वयस्क के रूप में माता-पिता से एक गहरे जुड़ाव का अनुभव : १९ से २५ वर्ष;

परस्पर निर्भरता और सलाहों का लेन-देन : २६ से ४० वर्ष;

भूमिकाओं में परिवर्तन और माता-पिता के स्वास्थ्य में गिरावट : ४० से ५० वर्ष;

माता-पिता की बच्चों पर पूर्णनिर्भरता : बच्चों की ५० की उम्र के बाद।

मेरे प्यारे बाबा डॉ. चंद्रकांत खोत सिद्धांत और अनुशासन के बहुत पक्के थे । उनके लिए कर्म ही पूजा था और कर्तव्य उनका भगवान । उनका जन्म तंज़ानिया में २० अगस्त १९३२ को हुआ और १६ नवंबर २०१३ को भारत में उन्होंने बड़ी शांति से अपने प्राण त्यागे । उसके अगले दिन कार्तिक पूर्णिमा की मंगलतिथि को दिल्ली में मेरी बहन माधुरी ने उनका अंतिम संस्कार किया ।

जब हम अज्जी के साथ पुणे में रहते थे तो उन्होंने बाबा के बचपन के बहुत से किस्से हमें सुनाए थे । बचपन में ही वे बड़े गंभीर और तीव्रबुद्धि थे। उनका दिमाग़ हमेशा तर्क से संचालित होता था और याददाश्त बिलकुल ‘फ़ोटोग्राफ़िक’ थी जिस पर हर बात स्थायी रूप से बिलकुल स्पष्ट-स्पष्ट छप जाती थी । उन्हें डाँट तो शायद ही कभी पड़ती हो, कभी किसी काम की याद दिलाने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती थी क्यों कि उनका जीवन क्रम पूरी तरह व्यवस्थित और अनुशासित था । उन्हें अपने हर काम को अच्छे से अच्छी तरह अंजाम देने की लगन थी, चाहे वह पढ़ाई हो, होमवर्क, प्रोजेक्ट या पारिवारिक कर्तव्य । वे दौड़-कूद या टीम बनाकर खेलेजानेवाले खेलों के शौकीन नहीं थे, मगर दोस्तों के साथ कंचे और क्रिकेट ज़रूर खेल लिया करते थे। वे स्वभाव से अंतर्मुखी थे। किताबें आदि पढ़ना और अकेले या अपनी बहन नलू के साथ घर में ही खेलना उन्हें पसंद था ।

तात्या-अज्जी के ख़ानाबदोशी जीवन के चलते बाबा की स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई चार अलग-अलग भाषाओं के माध्यम से हुई – गुजराती, कन्नड़, मराठी और अंग्रेज़ी । इसके बावज़ूद वे कक्षा में हमेशा प्रथम आते थे। और तो और उनकी समझने और याद रखने की अद्भुत क्षमता और प्रखर मेधाविता के कारण उन्हें स्कूल में दो बार डबलप्रमोशन भी मिला था, अर्थात् एक कक्षा में उत्तीर्ण होने पर उसके बादवाली कक्षा में नहीं बल्कि उसे लाँघकर उससे भी आगेवाली कक्षा में स्थान दिया जाना । इस प्रकार १९५६ में सिर्फ़ २४ वर्ष की उम्र में वे पुणे के कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग में इलेक्ट्रॉनिक्स और कम्युनिकेशन में डॉक्टरेट के लिए सबसे कम उम्र के उम्मीदवार थे। १९५८ में उन्होंने भारतीय रेल विभाग में नौकरी शुरू की जहाँ वे बत्तीस वर्ष तक सिगनल तथा टेलीकम्यूनिकेशन (S&T) विभाग में बड़ी निष्ठा तथा लगन से काम करते रहे । इस क्रम में भारत के विभिन्न शहरों में निवास के अतिरिक्त १९६९ से १९७४ तक पाँच वर्ष वे जापान में भी रहे जहाँ वे तोक्यो स्थित भारतीय दूतावास में वैज्ञानिक अताशे नियुक्त हुए थे । १९७८ में कोलकाता में भारत की पहली भूमिगत मेट्रो रेल की अत्यंत कुशल सिगनलप्रणाली खड़ी करने का श्रेय उन्हें दिया जाता है और १९८७ में कोंकण रेलवे मार्ग पर दूरसंचार की आधुनिकतम टेक्नोलॉजी के प्रभावी नियोजन का भी ।

माधुरी और मैं जब छोटे थे तो हमें उनके स्कूटर पर सवारी करने में बड़ा आनंद आता था । हममें अक्सर तकरार हो जाती थी कि स्कूटर पर उनके सामने कौन खड़ा होगा क्योंकि बाबा की चौड़ी पीठ के पीछे बैठने की बजाय सामने खड़े होने में बहुत ज़्यादा मज़ा आता था जहाँ हवा हमारे बालों सेअठखेलियाँ करती गुज़रती थी और आसपास के नज़ारे भी अच्छी तरह दिखाई देते थे। छोटी बहन होने के नाते अक्सर जीत मेरी ही होती थी । दक्षिण बंबई में कोलाबा स्थित बधवार पार्क रेलवे कॉलोनी में हमने अपने बचपन के सात वर्ष बिताए थे। मेरी बहन के जूनियर स्कूल की अपेक्षा मेरा किंडरगार्टन घर के ज़्यादा नज़दीक पड़ता था पर मैं अड़ जाती थी कि बाबा हर सुबह मुझे स्कूल छोड़ने के पहले स्कूटर पर एक लम्बी सैर कराएँ । तीसरे पहर मैं अपनी माँ के साथ स्कूल से पैदल ही घर लौटती थी ।

हम चौपाटी के समुद्र तट पर गणपतिका विसर्जन देखने गए थे। हर वर्ष की तरह इस अवसर पर वहाँ हज़ारों का जनसमूह उमड़ा था । भीड़ की धकामुक्की में हम कहीं गुम न जाएँ इस भय से आई ने कसकर हमारे हाथ थाम रखे थे। जब कंधे से कंधे छिलने लगे तो बाबा ने मुझे उठाकर अपने मज़बूत कंधों पर बैठा लिया । इससे मैं सुरक्षित ही नहीं हो गई, मुझे वह रंग-बिरंगी शोभायात्रा भी बड़ी अच्छी तरह से दिखाई देने लगी । उसके बाद से मेरी प्रिय सवारी स्कूटर नहीं, बाबा के कंधे हो गए ।

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