मेरी अज्जी और मैं (१८/२१)

अस्पताल में प्रैक्टिस से कॉर्पोरेट दफ़्तर – मेरे लिए यह परिवर्तन बहुत बड़ा था । इसके लिए आवश्यक ज्ञान और कौशल मैंने पुणे की सिम्बायोसिस इंटरनेशनलइंस्टिट्यूट द्वारा संचालित दूर-शिक्षण कार्यक्रमों के माध्यम से हासिल किया । ये पाठ्यक्रम पूरे करने के बाद मुझे चिकित्सा-विधिक (मेडिको लीगल) प्रणालियों तथा स्वास्थ्य सेवा एवं अस्पताल प्रबंधन में स्नातकोत्तर डिप्लोमा मिले । टी. टी. के. थर्ड पार्टी एडमिनिस्ट्रेटर (TTK Third Party Administrator) में काम करते हुए भी मैंने बहुत कुछ सीखा । वह मेरे कैरियर का बहुत महत्वपूर्ण और दिलचस्प दौर था । अपने कठोर परिश्रम और ईश्वर की कृपा से इस क्षेत्र में मैंने बहुत जल्दी उन्नति की और टी. टी. के. टी. पी. ए. सर्विसेज़ के केन्द्रीय ग्रुप की सदस्य तथा उनकी चिकित्सकीय सेवाओं की अध्यक्ष के रूप में मैं अखिल भारतीय स्तर पर बीमा कंपनियों के हितग्राहियों के लिए बिना नक़द रकम चुकाए अस्पताल में भरती होकर इलाज़ करवाने की मज़बूत कार्यविधि स्थापित करने में योगदान कर सकी । जब विश्व की सबसे बड़ी पुनर्बीमा कम्पनी (re-insurer) Swiss-Re (स्विस-रे) ने टी. टी. के. के साथ मिलकर संयुक्त उपक्रम शुरू किया और मुझे स्विस-रे हेल्थकेयर सर्विसेज़ के दल में शामिल किया गया तो मेरी आर्थिक स्थिति में एक बड़ा उछालआया । तीन साल तक मैंने इस बहुराष्ट्रीय कम्पनी में काम किया । यहाँ मैं इनके एशिया लाइफ़ ऐंड हेल्थ (एशिया : जीवन और स्वास्थ्य) दल की अध्यक्ष रही । मेरे दल के सदस्य विभिन्न एशियाई देशों में बिखरे थे। मेरी भूमिका थी निरंतर यात्राएँ करते हुए इस पार-सांस्कृतिक दल का प्रबंधन करना । स्विस-रे संगठन में इतने ऊँचे पद पर कार्यरत भारतीय महिला एकमात्र मैं ही थी । मैंने इसमें बहुत कुछ सीखा, अनेक नए मित्र बनाए और अपने कैरियर के इस दौर का भी मैंने बहुत आनंद लिया ।

पूजा की पढ़ाई बहुत अच्छी चल रही थी । उसे बारहवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा में ऊँचे नंबर मिलेऔर ऐस. ए. टी. (SAT – स्कॉलैस्टिक ऐप्टीट्यूड टेस्ट) में भी । वह चौदह साल तक फ्रैंक एंथनी पब्लिक स्कूल में पढ़ी थी और अपने प्रिय स्कूल में उसने खेल-कूद की कप्तानी भी की और संगीत की भी । उसने बायो-मेडिकल(जैव-चिकित्सीय) इंजीनियर बनने का फ़ैसला किया क्योंकि डॉक्टरी का पेशा अपनाने के स्थान पर वह प्रौद्योगिकी के माध्यम से स्वास्थ्य सेवाओं में योगदान करना चाहती थी । उसका कहना है कि वह पीढ़ियों के बीच पुल बनाने की कोशिश कर रही है क्योंकि उसके नाना और दादा, दोनों ही इंजीनियर थे और माता तथा पिता, दोनों ही डॉक्टर हैं ।

इंजीनियरिंग में यहअपेक्षाकृत नई शाखा थी और भारत में कई अच्छे विश्वविद्यालयों में स्नातक स्तर पर इसकी पढ़ाई नहीं होती थी । तो भाग्य उसे सत्रह वर्ष की नाज़ुक उमर में अमेरिका के शहर ओहायो में स्थित सिनसिनाटी विश्वविद्यालय ले गया । इसी उमर में अकुताई ने भी आजरा से पुणे की अपनी पहली यात्रा की थी ! इस कच्ची उमर में अपनी बच्ची को घर से इतनी दूर भेजने को मेरा मन नहीं मान रहा था कि अगले कुछ वर्ष हम उसे साल में सिर्फ़ एक ही बार देख पाएँगे। तभी मेरी आँखों केआगे अपनी अज्जी की ज़िंदगी कौंध गई । मेरा मन बोला कि पूजा में भी आख़िर उन्हीं के जीन्स हैं और वह दुनिया में जहाँ भी रहना चाहे, वह अपने पैर जमा ही लेगी । तब मैंने उसके अमेरिका जाने को सहमति दे दी । मुझे पूरा विश्वास था कि इंडियाना के फ़ोर्ट वेन में रहनेवाली मेरी जिठानी वैजू उसकी पूरी तरह मदद करेंगी । साथ ही विवेक के दोनों भाई, अशोक और अरुण, सिनसिनाटी के आसपास ही डॉक्टरी की प्रैक्टिस कर रहे थे।

नन्ही चिड़िया के उड़ जाने पर सूने घोंसले जैसे घर के ख़ालीपन को झेलना विवेक और मेरे लिए बहुत ही भारी रहा । हमारे जीवन का यह सचमुच ही कठिन दौर था । आधुनिक तकनीकी को सलाम, कि उसकी बदौलत हम महासागरों के पार उस दूर देश में रहनेवाली अपनी बिटिया से ई-मेल, सेलफ़ोन, इंस्टैंट मेसेंजर, स्काइप से आमने-सामने की बातचीत आदि की सुविधाओं के ज़रिये बराबर संपर्क बनाए रख सके! मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि बीसवीं सदी के आरंभ में अकुताई की माँ अपने गाँव आजरा से मुश्किल से कोई सौ किलोमीटर दूर रहनेवाली बेटी से इतना संपर्क नहीं रख पाती होंगी जितना सिनसिनाटी और बंगलौर की दूरी के बावज़ूद मैं पूजा से रख लेती हूँ ।

निरंतर परिश्रम के बाद कुछ विश्राम पर भी मेरा हक़ बनता था । दिसंबर २०१० में मैंने तीन महीने की छुट्टी ली और तय किया कि इस फ़ुरसत में अपनी ज़िंदगी, कर्मजीवन और निजी लक्ष्योंपर एक नज़र डालूँ, उनका लेखा-जोखा लूँ । थायरॉयड संबंधी समस्या के कारण मुझे एक ऑपरेशन कराना पड़ा था । उसके बाद मैंने स्विस-रे से त्यागपत्र दे दिया और तीन महीने का समय सिर्फ़ आराम करने, सर्जरी के बाद स्वास्थ्यलाभ और आनंद से बिताने के लिए तय कर लिया । भारत की चिकित्सक बिरादरी के लिए यह धारणा ही कल्पनातीत है, पर मैं अच्छी तरह समझ रही थी कि मुझे ‘सिर्फ़ अपने साथ बिताने के लिए’ इस समय की ज़रूरत थी । इसी समय के दौरान मैंने अपनी दादी माँ को श्रद्धांजलि के तौर पर यह पुस्तक लिखने का निश्चय किया । लंबे समय से यह इच्छा मेरे मन में थी पर इसके लिए कभी समय ही नहीं मिला । इसी समय के दौरान मुझे अपने पारिवारिक कर्तव्यों को निभाने का अवसर भी मिला । मेरे पिता, माँ और श्वसुर, तीनों ही २०११ में स्वास्थ्यसंबंधी किसी न किसी गंभीर समस्या से ग्रस्त रहे और मैं एक कर्तव्यपरायण बेटी और कुशल चिकित्सक के रूप में उनकी सार-सँभाल कर पाई । उनकी सेवा कर पाने से मुझे बड़ा आनंद मिला और मुझे अपने आसपास पाकर वे भी बड़े प्रसन्न थे। मगर मेरे लिए इस समय का सबसे आनंददायक उपयोग था, इस पुस्तक के लिए आवश्यक शोध करना और इसके लिए तमाम सामग्री एकत्रित करने के लिए परिवार के लोगों के इंटरव्यू करना । अपने माता-पिता, चाचाओं और बुआओं के साथ यादों के गलियारों से गुज़रना, आजरा और हिंगणे की यात्राएँ और पुरानी तस्वीरों की तलाश में अरसे से बंद पड़े संदूकों को टटोलना – बहुत रस आया मुझे इन सबमें ।

जून २०१० में पूजा ने यूनिवर्सिटी ऑफ़ सिनसिनाटी से सर्वोच्च प्रतिष्ठा के साथ बायो-मेडिकल इंजीनियरिंग में ऑनर्स की डिग्री ली । अंतिम वर्ष के प्रोजेक्ट के तौर पर उसकी टीम ने ‘Ischiban’ (इचीबान) शीर्षक के अंतर्गत जो कार्य किया था उसे वर्ष के अभिनवतम चिकित्सकीय उपकरण के रूप में सराहा गया था और पूजा को उसके लिए बहुत प्रशंसा और अनेक पुरस्कार मिले थे। विश्वविद्यालय ने उसे संपूर्ण छात्रवृत्ति देने का प्रस्ताव रखा और पूजा ने और दो साल वहीं रुककर अपने स्नातकोत्तर अध्ययन को भी पूरा करने का निश्चय कर लिया । इसके साथ ही वह वहाँ एक क्लिनिकल फ़ेलोशिप के अंतर्गत अपनी उस खोज पर काम भी ज़ारी रखे हुए है । यह उपकरण सिरपट्टी (हेडबैंड) जैसा होता है जो मस्तिष्काघात (स्ट्रोक) के कारणों का निदान काफी कम समय और ख़र्च में कर लेता है । इससे उसकी चिकित्सा गोल्डन विंडो की अवधि (वह अवधि जिसके दौरान चिकित्सा मिल जाने पर रोगी संकट से बच जाता है) के अंदर ही होना संभव हो जाता है । इस प्रकार रोगी का पक्षाघात से बचाव हो जाता है । इस अभिनव उपकरण में क्षमता होगी कि भविष्य में यह अनेक व्यक्तियों के लिए बीमारी के बिगड़ने तथा मृत्यु की संभावनाओं को कम कर सकेगा । छोटी उम्र में ही पूजा की इन उपलब्धियों और मानवता एवं स्वास्थ्यसेवाओं को उसके योगदान के कारण हमें उस पर बेहद गर्व है । प्रभु से हमारी प्रार्थना है कि निकट भविष्य में वह और भी ऐसे अच्छे काम करे जिससे हमारे समाज के कष्ट दूर हों ।

इस दौरान किए गए आत्मनिरीक्षण के माध्यम से मैं अपने जीवन के दो महत्वपूर्ण पक्षों पर फ़ैसले लेने में सक्षम हुई । एक तो मैं अपनी अज्जी को उपहार रूप यह पुस्तक लिख कर पूरी करना चाहती थी, और दूसरे, मैं विवेक के और अपने सुखमय वैवाहिक जीवन के पच्चीस वर्ष पूरे होने की ख़ुशी को एक विशेष रूप से मनाना चाहती थी – उनके साथ कैलाश और मानसरोवर की यात्रा करके। ईश्वर ने इस जीवन में मुझे कृपापूर्वक इतना जो कुछ दिया है, ये दोनों बातें उसके लिए कृतज्ञता प्रकट करने का मेरा अपना तरीक़ा था । इतने वर्षों में मेरी समझ में आने लगा है कि यदि कोई बात हम उत्कट भाव से चाहें और उस लक्ष्य के पीछे कोई ऊँचा उद्देश्य हो तो ईश्वर और प्रकृति अपने ही रहस्यमय तरीक़ों से उस चाहना को पूर्ण कर ही देते हैं ।

अगस्त २०११ में हमने हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं में स्थित कैलास-मानसरोवर की यात्रा संपन्न कर ली । यह मेरे जीवन की सबसे चुनौतीपूर्ण और सबसे अधिक अद्भुत यात्रा थी ! मैं सच कहती हूँ, इस आध्यात्मिक यात्रा से गुज़रकर मैं पहले से कहीं बेहतर इंसान बन सकी हूँ । इसके चलते मैं यह निर्णय ले सकी कि बहुराष्ट्रीय निगमों की दुनिया अब मेरे लिए नहीं है । मैं अब भारत में ही ज़मीनी स्तर पर काम करना चाहती थी ताकि अपनी जानकारी, अनुभव और कौशल का लाभ उपयुक्त चिकित्सासेवाओं और जनकल्याण की परियोजनाओं को देकर जनसामान्य के जीवन को वास्तव में बेहतर बनाने में योगदान कर सकूँ । मैं जानती थी कि इसके लिए सही अवसर और उपयुक्त मंच मुझे अवश्य मिलेगा इसलिए मैंने बहुत से अर्थकर और ललचानेवाले प्रस्तावों को ठुकरा भी दिया । अंत में जाकर मुझे यू. डी.जी. (UDG – यूनाइटेड ड्राई गुड्ज़) में चीफ़ वेलबीइंग ऑफिसर (मुख्य कल्याण अधिकारी) के पद के लिए प्रस्ताव मिला जिसे मैंने स्वीकार कर लिया । यूनाइटेड ड्राई गुड्ज़ बंगलौर में एक कारखाना है जहाँ पोशाकें तैयार करके निर्यात की जाती हैं । इस समय मैं इनकी नैगमिक सामाजिक उत्तरदायित्व (Corporate Social Responsibility –CSR) परियोजनाओं की प्रमुख हूँ । सी. ऐस. आर. अंतर्गत इस कारखाने के श्रमिकों तथा संबद्धलोगों के स्वास्थ्य तथा कल्याण के लिए परियोजनाएँ चलाई जाती हैं । मैंने २०१२ की जनवरी से यह कार्य शुरू किया है और इसमें हर दिन, हर पल मुझे बड़ा ही आनंद आता है ।

मेरी अज्जी ने हमारे लिए बड़ी ही शानदार विरासत छोड़ी है । वे सदा मेरी आदर्श रही हैं और मेरे जीवन संबंधी निर्णयों पर उनका बड़ा प्रभाव रहा है । पूजा में मुझे वही जीवट और ओज दिखाई देता है । वह अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद भारत लौटना चाहती है ताकि वह अपनी जानकारी और कौशल का उपयोग देश की ग्रामीण जनता के हित में कर सके – विशेषकर भारत की भावी वृद्धि और विकास के लिए । मैं अब जानती हूँ कि यह विरासत हम लोगों के ज़रिये जी रही है और जबतक हम अज्जी को अपने हृदयों में जीवित रखेंगे तब तक यह भी जीवित रहेगी ।

जो जीवन मैंने जिया है वहइ तना समृद्ध रहा है, उसे सुंदर बनाने के लिए मुझे इतने अद्भुत परिवार और मित्रों का वरदान मिला है कि मैं कृतज्ञता से नत हो जाती हूँ । मैं प्रार्थना करती हूँ कि प्रभु की कृपा से मैं स्वस्थ और सबल बनी रहूँ ताकि मैं और ज़्यादा काम कर सकूँ, अपने आसपास के लोगों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन ला सकूँ और इस सुंदर दुनिया को अधिक से अधिक प्रतिदान दे सकूँ । हर सुबह का अपूर्व सूर्योदय और हर संध्या का भव्य सूर्यास्त, रंग-बिरंगे फूल और तितलियाँ, कपास के ढेर-से बादलों के बीच तैरती–सी गुज़र जाती शानदार चीलें, आकाश से झूलता-सा, दिन-दिन बदलता चाँद और अनंतकाल से टिमटिमाते आते तारे – ये सब मेरे एक-एक दिन को सार्थक और सुंदर बनाते हैं । अपनेअंतर में मुझे एक अद्भुत शांति और संतोष का अनुभव होता है जिससे मुझे जीवन नाम की इस अनोखी यात्रा के एक-एक पल का आनंद लेने की क्षमता मिलती है ।

हमारे जीवन में दिसंबर २०१२ से दिसंबर २०१३ के बीच कुछ ऐसी घटनाएँ हुईं कि मुझे विवश होकर इस पुस्तक की पांडुलिपि का कार्य कुछ समय के लिए समेट लेना पड़ा और अब मैं इसमें एक अंतिम अध्याय और जोड़ रही हूँ । शायद यह नियति ही थी और इसीलिए यह पुस्तक पहले प्रकाशित नहीं हो सकी । यह कहावत सचमुच सत्य ही है – ‘मेरे मन कछु और है, कर्ता के कछु और’ !

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