कहत कबीर ४३

कबीरदासजी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

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माला फेरत जुग गया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मनका छाँड़ि दे, मन का मनका फेर ।।

कबीरदास जी हमेशा मानते रहे हैं कि धर्म का संबंध आत्मा की निर्मलता से है और यह निर्मलता बाहरी क्रियाकांडों — पूजा – नमाज़ आदि से नहीं बल्कि एकाग्र साधना से आती है । अनेक धर्मों में हाथ में माला फेरते हुए ईश्वर के नाम के जाप को धर्माचरण का एक प्रमुख रूप माना गया है । इस दोहे में कबीरदास जी का कहना है कि साधना इन बाहरी उपायों से नहीं बल्कि मन को साधने से होती है । माला फेरते हुए हमारा ध्यान अगर ईश्वर के अलावा कहीं और भटकता है तो वह साधना नहीं है । अक्सर देखा गया है कि बरसों तक माला फेरने पर भी मनुष्य का मन ईश्वर में न लग कर इधर उधर भटकता रहता है। कबीरदास जी सलाह देते हैं कि मनुष्य को माला के संसारी मनकों को छोड़कर अपने अंतर्मन को ही मनके की तरह पूजा का उपकरण बना लेना चाहिए । अर्थात, उसे अपने हृदय में एकाग्र होकर ईश्वर की साधना करनी चाहिए । परम ज्ञान रूपी ईश्वर की प्राप्ति उसे तभी होगी ।

कबिरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर ।
जो पर पीर न जानई, सो काफ़िर बेपीर ।।

कबीरदास धर्म को बाहरी आचारों से नहीं बल्कि मानवीयता से जोड़कर देखते हैं । उनके मत में ‘पीर’ अर्थात संत कहलाने का अधिकारी वही व्यक्ति है जो लोगों की पीर, अर्थात पीड़ा और कष्टों को समझे (और उन्हें दूर करने की चेष्टा करे) । जो संसार के मनुष्यों की तक़लीफ़ों को न समझे, उनका दुख न बँटाए, उनसे मुँह फेरकर अपने धर्माचारों में ही मगन रहे, वह बेपीर अर्थात करुणारहित व्यक्ति काफ़िर, अर्थात धर्मविरोधी माना जाना चाहिए । सच्चा धर्म मानव – प्रेम और करुणा में ही निहित होता है ।

  • कहत कबीर ०३

    ऊँचे पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय । // बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय । ऊँचे पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय//बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय// कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन…

  • कहत कबीर ०४

    बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर । // काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खानि । कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं,…

  • कबीर दास जी से प्रेरित कुछ दोहे — १

    यह दोहे श्री अनूप जलोटा के गाये हुए “कबीर दोहे” की धुन पर सजते हैं Ego को न बढ़ाइए, Ego में है दोष  जो Ego को कम करे, उसे मिले संतोष मानुष ऐसा चाहिए, प्रेम से हो भरपूर सेवा सब की जो करे, रहे अहम् से दूर  “कबिरा” नगरी प्रेम की, उसमे तेरा वास  उस नगरी के द्वार पर, लिखा है “कर विश्वास” — राम बजाज Image Credits: https://www.tentaran.com/happy-kabir-das-jayanti-wishes-status-images/

पद्य (Poetry)

Dear Rain

My love, my heart whispers to you,In your gentle drops, my soul renews.You bring a smile, a soft delight,Farmers’ hearts rejoice, with hope so bright.

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मेरी अज्जी और मैं (९/२१)

शुरुआत में जाइए मेरी अज्जी और मैं (१/२१) स्त्री परिवार की धुरी होती है; परिवार समाज की बुनियादी इकाई होता है; समाज मिलकर राष्ट्र को

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गद्य (Prose)

मेरी अज्जी और मैं (८/२१)

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