धूप

नन्ही मुन्नी भोली सी बच्ची की तरह
भोर की धूप
अपनी सतरंगी फराक सबको दिखाने के लिए
फुदकती हुई
आसमान से उतर आती है…

ऊँची छत पर पल दो पल सुस्ताकर
चंचलता से नाचती हुई,
गलियों में पहुँच जाती है…

फिर दिन भर जलती दोपहरी में
हाट बाट, चौराहों पर भटककर,
सनसनाती लू के साथ तरह तरह के खेल खेलकर
तीसरे पहर पाती है,
उसकी इन्द्रधनुषी फराक
पड़ चुकी है बदरंग – – –
मैली, पीली, धूसर…


अम्मा की डाँट के डर से सहमा हुआ मन लिए
रुआँसी सी जाकर खड़ी हो जाती है
अपनी दुकान बढ़ाते बूढ़े रंगरेज
सूरज दादा के सामने…

दादा मुस्काकर अपना बचा खुचा रंग
उड़ेल देते हैं उसके कपड़ों पर…
वह फिर सतरंगी होकर
ख़ुशी से चिड़ियों के साथ स्वर मिलाकर
किलक उठती है…

कहती है,
अच्छा, अब हम जाएँ?
कल फिर आएँगे , अच्छा ?
टा – टा !
टा …. टा !!!

— कुसुम बांठिया

यादों के साये (Nostalgia)

मुट्ठी में दुअन्नी

बचपन में हम एक छोटी सी औद्योगिक बसाहट में रहते थे – तीन बँगले, ८-१० क्वार्टर, मजदूरों की बस्ती, एक डिस्पेंसरी और बैरकनुमा ऑफिसों के

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पद्य (Poetry)

Dear Rain

My love, my heart whispers to you,In your gentle drops, my soul renews.You bring a smile, a soft delight,Farmers’ hearts rejoice, with hope so bright.

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गद्य (Prose)

मेरी अज्जी और मैं (९/२१)

शुरुआत में जाइए मेरी अज्जी और मैं (१/२१) स्त्री परिवार की धुरी होती है; परिवार समाज की बुनियादी इकाई होता है; समाज मिलकर राष्ट्र को

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