कहत कबीर २१

साधु भया तो क्या भया, बोले नाहिं बिचार । // मधुर बचन है औषधी, कटुक बचन है तीर ।

कबीर संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीर के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

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साधु भया तो क्या भया, बोले नाहिं बिचार ।
हतै पराई आतमा, जीभ बाँधि तरवार ।।

कबीर कहते हैं कि कोई साधु अगर बिना सोचे समझे कुछ भी बोल देता है जिससे औरों की आत्मा को कष्ट होता है तो उसके साधु होने का कोई मतलब ही नहीं है । जिस तरह तलवार लोगों की देह को घायल करती है उसी प्रकार कड़वी और कठोर बातें लोगों के दिल को घायल करती हैं ।
कबीर का आशय है कि केवल वैराग्य का बाना/वेश धारण करने से ही कोई साधु नहीं हो जाता । साधु वह होता है जो स्वभाव से सौम्य और शांत होता है, जिसके संसर्ग में लोगों को शांति मिले और अपने उद्धार का पथ भी मिले । जिसका स्वभाव कठोर और वाणी कर्कश हो वह चाहे कितना ही ज्ञानी हो उसका लाभ औरों को नहीं मिल सकता । ऐसे में उसके साधु होने की कोई सार्थकता नहीं है ।

मधुर बचन है औषधी, कटुक बचन है तीर ।
स्रवन द्वार ह्वै संचरै, साले सकल सरीर ।।

इस दोहे में भी कबीरदास जी मधुर वचनों का महत्व समझा रहे हैं। वे कहते हैं, मीठी बोली औषधि जैसी होती है । कोई व्यक्ति कितने ही कष्ट में हो, मीठे वचन उसे शांति पहुँचाते हैं और उसका दुःख भुलाते हैं । इसके विपरीत कड़वी बातें तीर जैसी होती हैं । कान रूपी दरवाज़े से ये अंदर जाती हैं और दिल को चीर देती हैं । इस दुख का असर सारे शरीर पर होता है । कबीरदास जी समाज में शांति और सौमनस्य चाहते थे । लोगों के संबंध अच्छे रहें उसके लिए ज़रूरी है कि उनके बीच झगड़े और तक़रार न हों । इसलिए सबकी आपसी बोलचाल में मिठास रहनी चाहिए ।

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