कहत कबीर १०

जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर – भीतर पानी । // जाका गुरु है आँधरा, चेला है जाचंध ।

कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

Read in English

जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर – भीतर पानी ।
फूटा कुंभ, जल जलहि समाना, यहि तथ कथौ गियानी ।।

जल के अंदर (डूबा) एक घड़ा है । उस घड़े के अंदर भी जल ही है (जो बीच में घड़े के आवरण के कारण अलग दिखाई देता है, पर है वास्तव में एक ही) । घड़ा फूटा और बाहर-भीतर का पानी वापस मिलकर एक – अभिन्न हो गए । इसी प्रकार, मनुष्य की आत्मा विश्व में व्याप्त ब्रह्म से अभिन्न है लेकिन माया ने शरीर (और संसार की अन्य वस्तुओं के भी) रूप में एक भ्रम रच रखा है जिसे हम सत्य समझ लेते हैं और ब्रह्म से अलग अपना (और बाक़ी संसार का भी) एक स्वतंत्र अस्तित्व समझने लगते हैं । किंतु जब हम सत्य को – ब्रह्म से अपनी अभिन्नता को – जान जाते हैं तो भ्रम के तमाम आवरण विलीन हो जाते हैं और हम स्वयं वह असीम चेतना बन जाते हैं ।
इस प्रक्रिया में गुरु की भूमिका को बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है । गुरु ही शिष्य को माया का बोध कराता और सत्य को समझने का मार्ग दिखलाता है । पर उस मार्ग पर चलने की साधना शिष्य को ख़ुद ही करनी पड़ती है । गुरु का महत्व इस बात में है कि वह नहीं बतलाता तो शिष्य को पता ही नहीं चलता कि वह किस तरह के भ्रम में है और यह, कि इससे निकलने की राह भी है।

जाका गुरु है आँधरा, चेला है जाचंध ।
अंधे अंधा ठेलिया, दोन्यूँ कूप परंत ।।

कबीरदासजी साधक के जीवन में गुरु के महत्व पर बार बार बल देते रहे हैं किंतु वे हर किसी को गुरु कहलाने लायक नहीं मानते । केवल शास्त्रों का अध्ययन करके कोई गुरु नहीं बन जाता । यह आवश्यक है कि उसने अपने पढ़े और सीखे ज्ञान को तो अपने अंदर उतारा ही हो, स्वयं निरंतर साधना के माध्यम से परम सत्य का साक्षात्कार भी किया हो । ज्ञान केवल पोथी रटने से नहीं मिल जाता । उसके लिए अपना अनुभव और साधना भी ज़रूरी है । तभी ज्ञान के नेत्र खुलते हैं और तभी वह शिष्य को सही मार्ग भी दिखा सकेगा । जिसके ज्ञान के नेत्र इस प्रकार न खुले हों, वह अंधे के समान ही होता है ।
इस दोहे में कबीरदासजी का आशय है कि इस तरह का गुरु स्वयं ही अंधा होता है । चेला भी अभी तक ज्ञान प्राप्त न होने के कारण जनम का अंधा अर्थात जन्मांध ही कहा जाएगा । अंधा व्यक्ति दूसरे को रास्ता क्या दिखाएगा ? दोनों ही एक दूसरे को धकियाते और लड़खड़ाते ही चलेंगे । जैसे अंधे को रास्ते में आनेवाला कुआँ नहीं दिखाई देता और वह उसमें जा गिरता है, उसी प्रकार अज्ञानी गुरु भी शिष्य को सही ज्ञान नहीं दे पाता । जो कुछ वह सिखाता-बताता है, उससे शिष्य का कल्याण नहीं, नुकसान ही होता है । वह ज्ञान और सत्य के मार्ग से दूर भटक जाता है ।

  • कहत कबीर ०३

    ऊँचे पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय । // बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय । ऊँचे पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय//बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय// कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन…

  • कहत कबीर ०४

    बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर । // काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खानि । कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं,…

  • कहत कबीर ०२

    निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी, छवाय । // जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप । कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों;…

यादों के साये (Nostalgia)

मुट्ठी में दुअन्नी

बचपन में हम एक छोटी सी औद्योगिक बसाहट में रहते थे – तीन बँगले, ८-१० क्वार्टर, मजदूरों की बस्ती, एक डिस्पेंसरी और बैरकनुमा ऑफिसों के

Read More »
पद्य (Poetry)

Dear Rain

My love, my heart whispers to you,In your gentle drops, my soul renews.You bring a smile, a soft delight,Farmers’ hearts rejoice, with hope so bright.

Read More »
गद्य (Prose)

मेरी अज्जी और मैं (९/२१)

शुरुआत में जाइए मेरी अज्जी और मैं (१/२१) स्त्री परिवार की धुरी होती है; परिवार समाज की बुनियादी इकाई होता है; समाज मिलकर राष्ट्र को

Read More »