कबीर दर्शन साधु का, करत न कीजै कानि । // सब धरती कागद करूँ, लेखनि सब बनराय ।
कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।
— कुसुम बांठिया
कबीर दर्शन साधु का, करत न कीजै कानि ।
ज्यों उद्यम ते लक्ष्मी मिलै, आलस में नित हानि ।।
इस दोहे में कबीरदास जी दो बातों पर बल देते हैं — व्यक्ति को साधु – संतों, अर्थात सज्जन ज्ञानियों के दर्शन के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए, और, किसी भी कार्य को सिद्ध करने के लिए उद्यम करना और आलस्य से दूर रहना जरूरी है।
सज्जनों के दर्शन से कबीर का तात्पर्य केवल उन्हें देख आना नहीं है। सच्चे दर्शन का अर्थ होता है साधु – संतों की संगति और उनके उपदेशों को भली भाँति सुनना और गुनना — उन्हें अपने जीवन में उतारना। इसके लिए सदा तत्पर रहने और चेष्टा करने की ज़रूरत है । यदि आप इसमें कानि (कसर या आलस्य) करते हैं तो आपको उनकी संगति से कोई लाभ नहीं मिलेगा।
कबीर आगे उदाहरण देते हुए कहते हैं कि संसारी जीवन में भी धन कमाने में भी व्यक्ति तभी सफल होता है जब उसके लिए वह तत्पर होकर मेहनत करता रहे। यदि आलस्य करेगा तो वह उस क्षेत्र में भी सफल नहीं हो पाएगा।
सार रूप में, आत्मा के कल्याण के लिए संतों की संगति बहुत आवश्यक है और इसका लाभ लेने के लिए व्यक्ति को पूरी लगन से चेष्टारत रहना चाहिए।

सब धरती कागद करूँ, लेखनि सब बनराय ।
सात समुंद की मसि करूँ, गुरु गुन लिखा न जाय ।।
इस दोहे में अतिशयोक्ति के ज़रिए कबीरदास यह दिखलाते हैं कि उनकी दृष्टि में गुरु का कितना महत्व है । सच्चा गुरु शिष्य को मोक्ष का मार्ग दिखाकर सदा सदा के लिए परम आनंद का द्वार खोल देता है । शिष्य फिर न माया के जाल में फँसता है न उसे संसार के कष्ट भोगने पड़ते हैं । यह सबसे बड़ा दान है जो कोई किसी को दे सकता है । इसीलिए इसे देनेवाले – गुरु की प्रशंसा भी उसी सीमा तक कर पाना असंभव है । कबीर कहते हैं, गुरु के गुणों का वर्णन लिखने के लिए मामूली काग़ज़, कलम और स्याही काफ़ी नहीं हैं । मैं अगर पूरी धरती की सतह को कागज़ मान लूँ, जंगल के सारे राजाओं – अर्थात बड़े-बड़े पेड़ों को काटकर उनकी कलम बना लूँ और सातों समुद्रों के सारे पानी की स्याही बनाकर गुरु की महिमा का वर्णन लिखना शुरू करूँ तो भी यह संभव नहीं होगा । अर्थात गुरु का महत्व इतना है कि उनकी प्रशंसा लिखते लिखते इतनी सामग्री ख़तम हो जाएगी फिर भी गुरु की पूरी महिमा का वर्णन नहीं हो सकेगा । वह अधूरा ही रह जाएगा ।
यह तथा इस जैसे अन्य कई दोहों के माध्यम से समझा जा सकता है कि कबीर के मन में गुरु का क्या स्थान था । आश्चर्य नहीं कि वे ईश्वर के भी पहले गुरु को प्रणाम करते हैं ।

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कहत कबीर ०३
ऊँचे पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय । // बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय । ऊँचे पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय//बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय// कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन…
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कहत कबीर ०४
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर । // काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खानि । कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं,…
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कहत कबीर ०२
निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी, छवाय । // जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप । कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों;…