सरहद

तुम भी मेरे जैसी माँ हों, सरहद के उस पार भी शायद,
जिसकी धड़कन रुक जाती है हे, ऊँची सी आवाज़ से,
बन्दूक और बारूद थमाए, अपने लाल को भेजा होगा ,
जान से बढ़ कर देश का जज़्बा, जुनून और नियाज़ भी शायद ।

बाबा भी तो आंसू रोके, दरवाज़े पे खड़े साथ में,
लौट के जल्दी आना मुन्ने, जीत वतन की थामे हाथ में,
जाओ दुश्मन मार गिराओ, देश को तुम पे नाज़ रहेगा,
दूर हुआ यूँ दिल का टुकड़ा, शाम बहुत उदास थी शायद ।

साँस आख़िरी ली बेटे ने, दोनों ओर थीं थमी धड़कने,
दुआ मांगी तेरी लाख बरस की,आंख अचानक लगी फड़कने,
ख़्वाब में देखा, खून में लथपथ, जवां जिस्म इक गिरा ज़मीं पर,
मार गिरे या मार गिराया, दोनों और परवाज़ भी शायद ।

देश के पहरेदारों ने इस, नफरत को इक नाम दिया फिर,
टुकड़े-टुकड़े चूर हुए दिल, कितनों को लाचार किया फिर,
सरहद पर जो खून बहा था, दोनों का रंग लाल ही निकला,
मरने वाला अपना सा था, निकले यह अल्फ़ाज़ भी शायद ।

रब रोया तब ख़ून के आंसू ,लाल ज़मी बरसात में ऐसे,
ज़मी, आसमां एक दिए थे, टुकड़ों में बटवारा कैसे?
चंद जनों की चाहत ख़ातिर, लहू बहा कितने लालों का,
सरहद की दोनों पहलू में, कितने घर नासाज़ भी शायद ।

तुम भी माँ हो, मैं भी माँ हूँ, गले लगो तो जख्म सिलेगा,
बिछड़ने वालों की रूहों को, शायद कुछ सुकून मिलेगा,
बुलंद आवाज़ और मिल कर बोलें, बंद करो नफरत की आंधी,
दो मुझको मरहम के दो पल, ज़ख्मी है आकाश भी शायद ।

सूरज, चाँद, धरा व सागर, सब को हैं ये प्यार सिखाते,
रब की धरती बाँट-बाँट कर, इंसा को इंसा से लड़ाते,
रफू करो ज़ख़्मों को मेरे, हर सरहद से चीख उठी है,
मंदिर की घंटी में गूंजे, हर सुबह की अज़ान भी शायद ।

सरहद पार, ऐ रब के बन्दे ,प्यार भरा पैगाम है मेरा,
रहें सलामत तेरे अक़ारिब, हो आबाद सदा घर तेरा,
प्यार ही मज़हब, प्यार ही पूजा, गीत गूंजेगा जिस सुबह को,
बदलेगी धरती की सूरत, सुन लेगा मेहताज़ भी शायद,
दो मुझको मरहम के दो पल, ज़ख्मी है आकाश भी शायद ।

— डा. रानी कुमार

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