कहत कबीर ४७

कबीरदासजी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

Read in English

प्रेम न बारी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा परजा जेहि रुचै, सीस देइ लइ जाय ।।

इस दोहे का शब्दार्थ है, प्रेम न तो (सब्ज़ियों की तरह) बगीचे में उपजता है, न यह बाज़ार में बिकता है कि कोई भी दाम देकर इसे ख़रीद ले ।  राजा से लेकर सामान्य प्रजा के लोग भी इसे ख़रीद सकते हैं पर इसकी क़ीमत अपना सिर देकर चुकानी पड़ती है । कबीरदास जी जिस प्रेम की बात कह रहे हैं वह सांसारिक नहीं बल्कि आध्यात्मिक प्रेम है जिसमें आत्मा और परमात्मा का संबंध होता है (लिंक देखें : कबीर के दर्शन में प्रेम की अवधारणा)।  यह प्रेम कोई मामूली या सतही भाव नहीं है ।  इसमें हृदय में (परमात्मा से ) मिलन की ऐसी अटूट लगन होती है कि साधक रूपी प्रेमी उस मिलन के लिए अपना तन, मन और सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर देता है ।  जब कबीरदास जी कहते हैं कि इसे पाने के लिए अपना सिर (अर्थात प्राण) तक देना पड़ता है, तो उनका आशय यही है ।  राजा से लेकर प्रजा तक कोई भी इस प्रेम में रम सकता है ।  सबके लिए इसकी शर्त एक ही है – सम्पूर्ण आत्म समर्पण ।

जो घट प्रेम न संचरै, सो घट जानि मसान ।
जैसे खाल लुहार की, साँस लेत बिनु प्रान ।।

प्रेम ऐसी भावना है जो मानव को मानव से और आत्मा को परमात्मा से मिलाती है । इस तरह यह सांसारिक जीवन के लिए भी महत्वपूर्ण है और आध्यात्मिक जीवन के लिए भी । इसलिए कबीरदास जी प्रेम को ही जीवन मानते हैं । इस दोहे में वे कहते हैं, जिस हृदय में प्रेम का संचार नहीं होता वह हृदय श्मशान के समान होता है जहाँ कोई जीवित प्राणी नहीं बसता । अगर कहा जाए कि वह व्यक्ति साँस लेता है इसलिए उसे जीवित माना जाना चाहिए, तो लुहार अपनी भट्टी की आग को दहकाने के लिए चमड़े की जो धौंकनी चलाता है उसे केवल हवा लेने – छोड़ने के कारण जीवित थोड़े ही कहा जाएगा । कबीरदास जी का आशय है कि केवल साँस लेना, चलना – फिरना और सामान्य जीवन व्यवहार जीवित होने का लक्षण नहीं है । प्रेम ही वह तत्व है जो जीवन को समाज के लिए भी उपयोगी और सार्थक बनाता है और ईश्वर की साधना के लिए भी । उसके बिना जीवन जीवन कहलाने के योग्य नहीं होता ।

टिप्पणी: ‘घट’ सब्द के अनेक अर्थों में एक अर्थ ‘हृदय’ भी है ।

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