कहा कुछ तुमने ?– सुना नहीं,
दुआ थी या बद्दुआ, पता नही ।
हाँ और ना से, हक़ीक़त बदलते देखी
बातों का अब मुझे, आसरा नहीं ।
लफ़्ज़ों की हेरा फेरी है शायद
मुझको उसकी परवाह नहीं ।
गले मिलो तो, सब पिघलेगा,
दोस्ती भी कोई, गुनाह नहीं ।
ग्रंथों की भाषा नहीं आती ऊपर वाले
बात सीधी होगी तुमसे ख़ुदा यहीं ।
दोस्ती में हाथ पकड़ लो मेरा
इतना भी मुश्किल कारवां नहीं ।
धड़कन और सांसों से महसूस करो
वरना लफ़्ज़ों में कुछ भी रखा नहीं ।
फ़र्ज़ तेरा भी उतना ही है मौला
हाथ छूटें ना, मझधार में कहीं ।
ख़ुदा से गुफ्तगू होगी अब राहत में
वरना दोस्ती का हक़, अदा नहीं ।
— डॉ. रानी कुमार
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