मेरी अज्जी और मैं — आभार

मैं इस पुस्तक के शोध, लेखन, संपादन और प्रकाशन के साथ मुझे प्रेरित करने और मेरी मदद करने के लिए अनेकानेक लोगों को धन्यवाद देना चाहती हूं।  पिछले कुछ वर्षों में उनके प्रोत्साहन और समर्थन ने इस पुस्तक को एक वास्तविकता बना दिया है ।

श्रीमती कमल खोत, श्रीमती लीला दशेपांडे, श्रीमती कुंदाताई नेने, डॉ. पी. डी. देशपांडे, अशोक डे, श्रीमती सी. ऐस. लक्ष्मी, सुश्री मिनी वैद, सुश्री अश्विनी जांबोटकर, श्रीमती सुमति कानिटकर, डॉ. लक्ष्मी डे, श्रीमती वीणा फणसलकर, मेरी संपादक सुश्री सायोनी बसु, पुस्तक प्रचार को संभालने के लिए अबोली जोशी और गौरिका सिंघल, ऑथर्स अपफ्रंट के मेरे प्रकाशक मनीष पुरोहित और सुश्री सामंथा सिरोही को पुस्तक के प्रचार के लिए ।

— नीलिमा कडाम्बी

लफ़्ज़ों में क्या रखा है

कहा कुछ तुमने ?– सुना नहीं, दुआ थी या बद्दुआ,  पता नही । हाँ और ना से,  हक़ीक़त बदलते देखी बातों  का अब  मुझे, आसरा नहीं ।

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यादों के साये (Nostalgia)

मुट्ठी में दुअन्नी

बचपन में हम एक छोटी सी औद्योगिक बसाहट में रहते थे – तीन बँगले, ८-१० क्वार्टर, मजदूरों की बस्ती, एक डिस्पेंसरी और बैरकनुमा ऑफिसों के

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