कहत कबीर ४५

कबीरदासजी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

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आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरु मान ।
हरष, शोक, निंदा तजै,कहैं कबीर, संत जान।।

इस दोहे में कबीरदास जी संतों के अनिवार्य गुणों का उल्लेख कर रहे हैं । संतों के लिए इतना ही काफ़ी नहीं होता कि वे सांसारिक जीवन त्यागकर पूजा पाठ और तपस्या में ही लग जाएँ । उनके लिए कुछ चारित्रिक गुणों का होना आवश्यक है जिनके बिना साधु जीवन केवल बाहरी दिखावा है । उन्हें सब तरह की इच्छाओं और आशाओं से मुक्त होना चाहिए; किसी (व्यक्ति या वस्तु)से मोह नहीं होना चाहिए; किसी भी स्थिति में न सुख होना चाहिए न दुख; न अपने को ऊँचा समझने का भाव होना चाहिए न दूसरों की निंदा करनी चाहिए । ऐसे ही चरित्र वाले लोग संत कहलाने के अधिकारी हैं । संसार त्यागकर केवल पूजा पाठ में लगे लोगों में भी यदि ये गुण न हों तो उन्हें संत नहीं कहा जा सकता ।

कागा काको धन हरै, कोयल काको देत ।
मीठे शब्द सुनाइ कै, जग अपनो करि लेत ।।

कबीरदास जी का यह दोहा लोक व्यवहार से सम्बद्ध है । उनका कहना है कि मनुष्य को समाज में तभी स्नेह और सम्मान मिलता है जब वह मिठबोला हो — उसकी वाणी मीठी (और स्नेहभरी) हो । उदाहरणके लिए, कौआ और कोयल, दोनों ही काले होते हैं । कौआ किसी का धन नहीं लूटता न कोयल किसी को कुछ दे देती है । फिर भी लोग कोयल को ज़्यादा चाहते हैं क्योंकि उसकी बोली मधुर होती है जिससे सुनने वालों को आनंद मिलता है । इसी प्रकार मधुर भाषी लोग समाज में लोकप्रिय होते हैं ।

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