कहत कबीर ३९

कबीरदासजी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

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केसन कहा बिगारिया, जो मूँड़ो सौ बार ।
मन को क्यों नहिं मूँड़िये, जा मैं विषय विकार ।।

धर्म और वैराग्य मन के भाव हैं मगर आम तौर पर लोग इनसे जुड़े बाहरी आचारों को ही धर्म समझ लेते हैं – मन में चाहे वे भाव हों या नहीं । कुछ पंथों में संन्यासियों के लिए सिर के बाल मुँडवा लेने का विधान है । कबीर कहते हैं कि संन्यास के लिए  बार बार सिर मुँडाने की क्या ज़रूरत है ? बाल तो वैराग्य में कोई बाधा उत्पन्न नहीं करते । वैराग्य में बाधा तो सांसारिक विषय-वासनाओं – काम, क्रोध, लोभ आदि से उपजती हैं जो बालों में नहीं, मनुष्य के मन में बसती हैं । अगर उनसे छुटकारा पाना है तो मन को क़ाबू में लाना चाहिए, न कि बालों को मुँडवा कर संन्यास का बाहरी दिखावा भर करना चाहिए ।

जहाँ प्रेम तहँ नेम नहिं, तहाँ न बुधि ब्यौहार ।
प्रेम मगन जब मन भया, कौन गिने तिथि वार ।।

कबीरदास जी प्रेम को सर्वोच्च भाव मानते हैं । यही वह भाव है जो मानवात्मा को परमब्रह्म से एकाकार कर देता है । आम तौर पर ईश्वर से मिलने के लिए सांसारिक लोग अनेक प्रकार के विधि विधान, नियम, आचार, व्रत, उपवास का सहारा लेते हैं । कबीर इन तमाम विधियों और आचारों को केवल बाहरी व्यवहार मानते हैं क्योंकि मन इनके पालन में ही उलझ जाता है और ईश्वर का ध्यान एकाग्र मन से नहीं हो पाता । जो मन इन सारे बाहरी आचारों से कटकर पूरी सच्चाई से ब्रह्म के प्रेम में लीन हो जाता है, उसे इन आचारों का ध्यान भी नहीं आता और इनकी ज़रूरत भी नहीं पड़ती । विशुद्ध प्रेम ही ब्रह्म की प्राप्ति का एकमात्र साधन है ।

  • कहत कबीर ०३

    ऊँचे पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय । // बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय । ऊँचे पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय//बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय// कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन…

  • कहत कबीर ०४

    बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर । // काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खानि । कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं,…

  • कबीर दास जी से प्रेरित कुछ दोहे — १

    यह दोहे श्री अनूप जलोटा के गाये हुए “कबीर दोहे” की धुन पर सजते हैं Ego को न बढ़ाइए, Ego में है दोष  जो Ego को कम करे, उसे मिले संतोष मानुष ऐसा चाहिए, प्रेम से हो भरपूर सेवा सब की जो करे, रहे अहम् से दूर  “कबिरा” नगरी प्रेम की, उसमे तेरा वास  उस नगरी के द्वार पर, लिखा है “कर विश्वास” — राम बजाज Image Credits: https://www.tentaran.com/happy-kabir-das-jayanti-wishes-status-images/

पद्य (Poetry)

Dear Rain

My love, my heart whispers to you,In your gentle drops, my soul renews.You bring a smile, a soft delight,Farmers’ hearts rejoice, with hope so bright.

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शुरुआत में जाइए मेरी अज्जी और मैं (१/२१) स्त्री परिवार की धुरी होती है; परिवार समाज की बुनियादी इकाई होता है; समाज मिलकर राष्ट्र को

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गद्य (Prose)

मेरी अज्जी और मैं (८/२१)

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