कहत कबीर ३६

कबीरदासजी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

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सतगुरु दीनदयाल हैं, दया करी मोहि आय ।
कोटि जन्म का पंथ था, पल में पहुँचा जाय ।।

कबीरदास जी ने परम ज्ञान अर्थात सिद्धि प्राप्ति के लिए गुरु का मार्गदर्शन अपरिहार्य (indispensible) माना है । जब गुरु ज्ञान का मार्ग दिखलाता है तभी साधक शिष्य को साधना का स्वरूप भी समझ में आता है और शीघ्र ही परम सिद्धि भी मिलती है । मार्ग दिखलाने वाला गुरु न मिले तो व्यक्ति करोड़ों जन्म लेकर भी सिद्धि पाने में सफल नहीं हो सकता । कबीर के अनुसार सच्चा गुरु ज़रूरतमंदों पर दया करने वाला होता है । उसका अपना कोई स्वार्थ नहीं होता । किसी में ज्ञान प्राप्ति की सच्ची लगन होती है तो सतगुरु स्वयं ही करुणा करके उसे राह दिखलाने पहुँच जाते हैं और उनकी सहायता से वह जल्दी और सहजता से अपने लक्ष्य को पा लेता है ।

सिख तो ऐसा चाहिए, गुरु को सब कुछ देय।
गुरु तो ऐसा चाहिए, सिख से कछु नहिं लेय ।।

इस दोहे में कबीरदास जी आदर्श शिष्य और गुरु की विशेषता पर प्रकाश डाल रहे हैं । वे कहते हैं, शिष्य ऐसा होना चाहिए जो अपना सब कुछ गुरु को समर्पित कर दे। उनका आशय धन संपत्ति से नहीं – मन, बुद्धि, चित्त, आस्था और विश्वास से है । शिष्य यदि गुरु से अलग अपने अस्तित्व के बारे में सोचेगा तो उसका अहंभाव उसे गुरु के उपदेश पूरी तरह आत्मसात नहीं करने देगा । इसी प्रकार आदर्श गुरु शिष्य से शिक्षादान के बदले धन संपत्ति, पद, प्रतिष्ठा, सुविधा आदि कुछ भी नहीं लेता । वह पूर्णतः निःस्वार्थ भाव से शिष्य को ज्ञान का मार्ग दिखाता है । इस तरह गुरु और शिष्य का संबंध आध्यात्मिक स्तर पर होता है, जिसमें न तो सांसारिक अहंभाव का स्थान होता है, न सांसारिक धन या मान का ।

  • कहत कबीर ०३

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    यह दोहे श्री अनूप जलोटा के गाये हुए “कबीर दोहे” की धुन पर सजते हैं Ego को न बढ़ाइए, Ego में है दोष  जो Ego को कम करे, उसे मिले संतोष मानुष ऐसा चाहिए, प्रेम से हो भरपूर सेवा सब की जो करे, रहे अहम् से दूर  “कबिरा” नगरी प्रेम की, उसमे तेरा वास  उस नगरी के द्वार पर, लिखा है “कर विश्वास” — राम बजाज Image Credits: https://www.tentaran.com/happy-kabir-das-jayanti-wishes-status-images/

पद्य (Poetry)

Dear Rain

My love, my heart whispers to you,In your gentle drops, my soul renews.You bring a smile, a soft delight,Farmers’ hearts rejoice, with hope so bright.

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शुरुआत में जाइए मेरी अज्जी और मैं (१/२१) स्त्री परिवार की धुरी होती है; परिवार समाज की बुनियादी इकाई होता है; समाज मिलकर राष्ट्र को

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