कहत कबीर ३५

कबीरदासजी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

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जिनके नौबति बाजती, मैंगल बँधते बारि ।
एकै हरि के नांव बिन, गए जन्म सब हारि।।

कबीरदास जी कहते हैं, जिन लोगों के घर के दरवाज़े पर उनकी समृद्धि का परिचय देती हुई नौबत बजा करती थी, और द्वार पर मस्त हाथी बँधे रहते थे, उनका जन्म लेना इसीलिए व्यर्थ हो गया कि वे भगवान की आराधना नहीं करते थे । इस दोहे का आशय यही है कि संसार में मनुष्य धन वैभव और ऐशो आराम को ही सब कुछ समझ लेता है और उसी में मस्त रहता है । ईश्वर को याद करने का समय वह निकालता ही नहीं । फलस्वरूप उसकी आत्मा की मुक्ति नहीं होती और उसे बार बार जन्म मरण के चक्र में फँसे रहना पड़ता है । कबीरदास जी यह समझाना चाहते हैं कि मनुष्य का जन्म इसलिए होता है कि वह माया के जाल को समझे और अपनी आत्मा के सच्चे स्वरूप को पहचान कर उस जाल से हमेशा के लिए मुक्त हो जाए । अगर संसार के प्रलोभनों में पड़कर वह ऐसा नहीं करता है तो उसका जन्म लेना व्यर्थ ही है ।

मैं मैं बड़ी बलाइ है, सकै तो निकसे भाजि ।
कब लग राखौ हे सखी, रुई लपेटी आगि ।।

कबीरदास जी अन्य भी अनेक दोहों में कह चुके हैं कि अपने अहम् अर्थात अपने एक स्वतंत्र सत्ता होने का बोध ईश्वर के ज्ञान के मार्ग में बाधा है । हम ईश्वर से अलग नहीं हैं यह भाव ही हमें ज्ञान की प्राप्ति में सहायता करता है । इस दोहे में भी वे ‘मैं’, अर्थात अहम् को बड़ी बला कहते हैं जिससे हमें दूर ही भागना चाहिए । जिस तरह रूई को आग में लपेटकर नहीं रखा जा सकता, वह तत्काल ही रूई को जलाकर भस्म कर देती है; उसी तरह अहम् भाव को भी मन में रखें तो वह उसी समय हमारी बुद्धि और विवेक को नष्ट कर दता है बुद्धि और विवेक के अभाव में हम ब्रह्म के ज्ञान के रास्ते पर चलना तो दूर उसके बारे में विचार भी नहीं कर पाते ।

  • कहत कबीर ०३

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    यह दोहे श्री अनूप जलोटा के गाये हुए “कबीर दोहे” की धुन पर सजते हैं Ego को न बढ़ाइए, Ego में है दोष  जो Ego को कम करे, उसे मिले संतोष मानुष ऐसा चाहिए, प्रेम से हो भरपूर सेवा सब की जो करे, रहे अहम् से दूर  “कबिरा” नगरी प्रेम की, उसमे तेरा वास  उस नगरी के द्वार पर, लिखा है “कर विश्वास” — राम बजाज Image Credits: https://www.tentaran.com/happy-kabir-das-jayanti-wishes-status-images/

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My love, my heart whispers to you,In your gentle drops, my soul renews.You bring a smile, a soft delight,Farmers’ hearts rejoice, with hope so bright.

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शुरुआत में जाइए मेरी अज्जी और मैं (१/२१) स्त्री परिवार की धुरी होती है; परिवार समाज की बुनियादी इकाई होता है; समाज मिलकर राष्ट्र को

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