हिंदू कहे राम मोहि प्यारा, तुरक कहे रहिमाना । ///// हिंदू कहूँ तो मैं नहीं, मुसलमान मैं नाहिं ।
कबीरदासजी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।
— कुसुम बांठिया
हिंदू कहे राम मोहि प्यारा, तुरक कहे रहिमाना ।
आपस में दोऊ लरि लरि मूए, मरम न काहू जाना ।।
कबीरदास जी संगठित धर्मों और उनके बाहरी कर्म कांडों को समाज के लिए हानिकारक मानते थे क्योंकि ये मानव मानव में भेद पैदा कर देते हैं । इस दोहे वे कहते हैं कि हिंदू राम को अपना मानते हैं तो मुसलमान रहमान (अर्थात ‘करुणामय’ , जो ख़ुदा के अर्थ में भी प्रयोग में आता है) को । इसी बात पर दोनों आपस में लड़ मरते हैं । असली अर्थ तो कोई समझता ही नहीं कि वह एक ही दिव्य शक्ति है जिसे वे अलग अलग नामों और कर्मकांडों से पूज रहे हैं । गहरी है और जो सचमुच मुक्ति के आकांक्षी हैं, वे इन कठिनाइयों के लिए तैयार होकर और भी मज़बूत इरादे के साथ साधना के मार्ग पर बढ़ेंगे ।

हिंदू कहूँ तो मैं नहीं, मुसलमान मैं नाहिं ।
पाँच तत्त का पूतला, गैबो खेलै माहिं ।।
कबीरदास जी किसी भी धर्म के कर्मकांडों का पालन नहीं करते थे किंतु उनकी भक्ति और ब्रह्म की साधना में कोई कमी नहीं थी । ख़ुद उनके समय भी इसे लेकर विवाद था । कुछ लोग उन्हें हिंदू मानते थे , कुछ मुसलमान । स्व यं कबीरदास जी को इस बहस से कोई मतलब नहीं था । इस दोहे में वे कहते हैं कि मैं न हिन्दू हूँ न मुसलमान । (अन्य सभी मानवों की तरह ) मैं धरती, जल, अग्नि, वायु और आकाश — इन पाँच तत्वों से बना एक पुतला भर हूँ जिसमें उस दिव्य शक्ति ने जीवन फूँका है और जिससे वह अपने खेल खेल रही है । सत्य भी यही है । कोई भी मनुष्य, चाहे किसी भी धर्म को माने, अंततः वह है तो पाँच तत्वों से बना पुतला ही जिसमें आत्मा के रूप में वह दिव्य शक्ति निवास करती है । धर्म और संप्रदाय बाहरी चीजें हैं । कबीरदास जी इन्हें छोड़कर बिलकुल गहराई में मूल तत्व की ओर जाते हैं ।

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