कहत कबीर ३२

कबीरदासजी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

Read in English

तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँयन तर होय ।
कबहुँक उड़ि आँखिन परै , तो पीर घनेरी होय ।।

कबीरदास जी मानव मात्र की गरिमा को जाति, धर्म, हैसियत आदि सबसे ऊपर मानते थे और हर स्थिति में उसके सम्मान की रक्षा ज़रूरी मानते थे । इस दोहे में वे कहते हैं, ज़मीन पर पाँवों तले आने वाले तिनके की भी कभी निंदा नहीं करनी चाहिए — अर्थात उसे तुच्छ नहीं समझना चाहिए । हो सकता है कभी हवा से उड़कर यह तिनका ही हमारी आँख में आ पड़े और हमारे असह्य कष्ट का कारण बने । वे तिनके के रूपक का प्रयोग समाज में दीन , दरिद्र और हीन समझे जाने वाले व्यक्तियों के लिए कर रहे हैं जिन्हें नीची निगाह से देखा जाता था । कबीरदास जी लोगों को चेता रहे हैं कि समय पड़ने पर वे हीन और असहाय समझे जाने वाले व्यक्ति भी हमसे कठिन बदला ले सकते हैं । मानव के रूप में उनकी मर्यादा को हमें सम्मान देना चाहिए ।

कबिरा गरब न कीजिए,ऊँचा देखि आबास ।
काल परौं भुईं लेटना, ऊपर जमसी घास ।।

देखा जाता है कि यदि किसी व्यक्ति के पास बहुत संपत्ति इकट्ठी हो जाती है और इसके फलस्वरूप वह ऐशो आराम के साधन जुटा लेता है, रहने के लिए भव्य भवन बनवा लेता है तो उसे बड़ा घमंड हो जाता है। ऐसे लोगों को कबीरदास जी सलाह देते हैं कि अपने ऊँचे-ऊँचे भवन देखकर घमंड नहींकरना चाहिए। ज़िंदगी क्षणभंगुर होती है और सारे वैभव के बावजूद उसे कल नही तो परसों, अर्थात कभी न कभी मर कर धरती पर ही लेटना है । उसकी काया मिट्टी में मिल जाएगी और उस पर घास उग आएगी । ये शानदार महल उसके किसी काम नहीं आएँगे ।

  • कहत कबीर ०३

    ऊँचे पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय । // बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय ।…

  • कहत कबीर ०४

    बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर । // काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खानि…

  • कहत कबीर ०१

    दोस पराए देख करि, चलत हसन्त हसन्त । // दीन, गरीबी, बंदगी, सब सों आदर भाव । कबीरदास जी संत…

Leave a Reply

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.