कमोदिनी जलहरि बसै, चंदा बसै अकास । ///// माखी गुड़ में गड़ि रही, पंख रहा लपटाय ।
कबीरदासजी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।
— कुसुम बांठिया
कमोदिनी जलहरि बसै, चंदा बसै अकास ।
जो जन जाको भावता, सो ताही के पास ।।
कुमुदिनी या कुमुद, कमल की ही जाति का एक जलपुष्प है जो रात को खिलता है । इसलिए भारतीय काव्यशास्त्र में कुमुद और चंद्रमा को प्रेमिका और प्रेमी के रूप में दिखाया जाता है । इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कुमुदिनी तो धरती पर सरोवर में रहती है और चंद्रमा दूर आकाश में (फिर भी इन दोनों का प्रेम स्थिर रहता है)। जहाँ प्रेम सच्चा होता है वहाँ स्थान की दूरी कोई मायने नहीं रखती । यदि किसी से गहरा प्रेम होता है तो प्रेमियों को वह हमेशा अपने नज़दीक़ ही महसूस होता है ।
इस उदाहरण के माध्यम से कबीर यह संदेश देना चाहते हैं कि ईश्वर हमें आसपास कहीं दिखाई नहीं देता पर हमें उससे दूरी महसूस नहीं होनी चाहिए । यदि हम सच्चे मन से उसे चाहेंगे तो वह हमेशा अपने निकट , अपने हृदय में ही महसूस होगा ।

माखी गुड़ में गड़ि रही, पंख रहा लपटाय ।
तारी पीटै , सिर धुनै, लालच बुरी बलाय ।।
इस दोहे में भी कबीरदास जी मक्खी के माध्यम से संसार के लोभ लालच में लिप्त मनुष्य की दशा का वर्णन कर रहे हैं । गुड़ की सुगंध और मिठास से आकर्षित होकर मक्खी उसका स्वाद लूटने के लिए उस पर जा बैठती है । किंतु अंततः वह चिपचिपे गुड़ में चिपककर फँस जाती है । गुड से सने होने के कारण उसके पंख भी उड़कर मुक्त होने में उसकी सहायता नहीं कर सकते । अपना नाश सामने देखकर वह हाथ झटकती और सिर धुनती है पर इस स्थिति से निकल पाना उसके लिए असंभव है । वह समझ जाती है कि लालच ने ही उसका यह हाल किया है पर अब यह समझ कर भी कोई लाभ नहीं है क्योंकि अब उसका सर्वनाश निश्चित है । मनुष्य भी सुख के लोभ में सांसारिक मोह माया और इन्द्रिय भोगों में इस तरह फँस जाता है कि बाद में चाहकर भी वह उनसे छूटकर सही मार्ग पर नहीं चल सकता , चाहे वह कितना ही पछताए और छटपटाए ।

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कहत कबीर ०३
ऊँचे पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय । // बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय । ऊँचे पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय//बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय// कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन…
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कहत कबीर ०४
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर । // काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खानि । कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं,…
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कहत कबीर ०२
निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी, छवाय । // जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप । कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों;…