कबीर सूता क्या करै, जागि न जपै मुरारि । ///// पात झरंता यों कहे, सुनु तरुवर बनराय ।
कबीरदासजी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।
— कुसुम बांठिया
कबीर सूता क्या करै, जागि न जपै मुरारि ।
एक दिन तू भी सोयगा, लंबे पाँव पसारि ।।
जीव संसार के मायाजाल में आता है तो उससे निकलने के लिए उसका प्रयत्न करना ज़रूरी है । यह प्रयत्न है, परमब्रह्म की साधना जिसके माध्यम से वह माया के चंगुल से छूटकर हमेशा के लिए मुक्त हो जाता है । यदि वह ऐसी साधना नहीं करता तो उसे बार बार जन्म लेकर इस जगत के कष्ट भोगने पड़ते हैं ।
इस दोहे में कबीर ऐसे व्यक्ति को जाग्रत करने की कोशिश कर रहे हैं जो संसार में ही खोया हुआ है और आत्मा के कल्याण की कोशिश नहीं कर रहा है । कबीर कहते हैं, तू सोया अर्थात भ्रम में खोया हुआ क्यों है ? होश में आ और ब्रह्म की साधना कर क्योंकि यह जीवन नश्वर है और एक दिन तुझे पैर पसार कर मृत्यु की नींद सोना ही है । तब तेरे पास आत्मा के उद्धार का कोई अवसर नही रहेगा ।
टिप्पणी :
मुरारि/मुरारी श्रीकृष्ण का एक नाम है, पर कबीर का आशय यहाँ श्रीकृष्ण से नहीं बल्कि निराकार निर्गुण ब्रह्म से है ।

पात झरंता यों कहे, सुनु तरुवर बनराय ।
अब के बिछड़े ना मिलेंगे, दूर पड़ेंगे जाय ।।
वृक्षों पर पत्ते आते हैं, बढ़ते लहलहाते हैं और वृक्ष को शोभा से भर देते हैं । पर समय आने पर वे ही पत्ते मुरझा कर सूख जाते हैं और झड़कर सदा के लिए वृक्ष से बिछुड़ जाते हैं । कबीरदास जी इस दोहे में इसी बात को मानव जीवन के रूपक के तौर पर प्रस्तुत करते हैं । वे कहते हैं, झरता हुआ पत्ता पेड़ से कहता है, ‘हे वन के राजा, अब हम सदा के लिए बिछुड़ रहे हैं । पता नहीं अब हम कहाँ जा पड़ेंगे ।’ उनका आशय है, मानव जीवन भी ऐसा ही है । मनुष्य धरती पर आता है, सबके साथ समय बिताता है पर अंत में मृत्यु आने पर सब स्वजनों से सदा सदा के लिए बिछुड़ जाता है । कबीरदास जी का आशय है कि मनुष्य को यह सत्य सदा याद रखना चाहिए और संसार की मोह माया में लिप्त नहीं होना चाहिए ।

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