कहत कबीर २३

जब दिल मिला दयाल सों, तब कछु अंतर नाहिं । // पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ , पंडित हुआ न कोय ।

कबीर संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीर के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

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जब दिल मिला दयाल सों, तब कछु अंतर नाहिं ।
पाला गलि पानी भया , ज्यों हरिजन हरि माँहिं ।।

कबीरदास कहते हैं, जब मनुष्य का दिल ईश्वर से मिल जाता है, अर्थात जब (साधना के द्वारा) उसे ईश्वर का और उससे अपने संबंध का ज्ञान हो जाता है तब दोनों के बीच कोई अंतर नही रह जाता । पानी और हिम में जैसे अंतर दिखाई देता है, वैसे ही उसे भी (माया के कारण) ईश्वर तथा अपने में अंतर महसूस होता था । पर जैसे हिम या बर्फ़ पिघलने पर वापस पानी बन जाता है, वैसे ही अपने सच्चे स्वरूप का ज्ञान होते ही ईश्वर के भक्त का फिर से ईश्वर में ही विलय हो जाता है ।
यहाँ कबीर ने ‘दयाल’ (दयालु) का प्रयोग किया है जो ईश्वर के पर्यायवाची के रूप में भी प्रयुक्त होता है , जैसे यहाँ हुआ है ।

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ , पंडित हुआ न कोय ।
ढाई आखर प्रेम का , पढ़ै सो पंडित होय ॥

कबीर कहते हैं, सचमुच ज्ञानी होने के लिए औपचारिक शिक्षा ज़रूरी नहीं है । लोग पुस्तकें रट रटकर अपने आपको बड़ा पंडित समझने लगते हैं, लेकिन यदि उनके मन में मानव मात्र के लिए प्रेम नहीं है तो उनका ज्ञान व्यर्थ है । सच्चा पंडित या ज्ञानी वही है जिसने (मानव) प्रेम के महत्व को सीखा और गुना (अपनाया) है । ‘प्रेम’ शब्द की वर्तनी में ढाई अक्षर आते हैं — प् (आधा प) , रे और म । कबीर मानते हैं कि मानव कल्याण के लिए इन ढाई अक्षरों का महत्व ज्ञान के ग्रंथों में आए लाखों अक्षरों से अधिक है ।

  • कहत कबीर ०३

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