कहत कबीर १९

सोना सज्जन साधुजन, टूटे जुड़े सौ बार । // तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय ।

कबीर संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीर के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

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सोना सज्जन साधुजन, टूटे जुड़े सौ बार ।
दुरजन कुम्भ कुम्हार का, एकै धक्क दरार ।।

इस दोहे में कबीरदास जी सज्जनों और दुर्जनों के बीच एक बड़े अंतर का उल्लेख करते हैं । सज्जन या साधुजन वे होते हैं जिनका मन निर्मल और चरित्र दृढ़ होता है । वे सही मार्ग की साधना में अटल रहते हैं । विपत्तियों या बाधाओं से घबराते नही बल्कि सही मार्ग की साधना में अटल रहते हैं । उनका चरित्र सोने जैसा होता है । सोने की वस्तु अगर टूट भी जाए तो उसे (गर्म करके) फिर से जोड़ा जा सकता है । इसके विपरीत दुर्जन या दुर्गुणी व्यक्ति कुम्हार के बनाए हुए मिट्टी के घड़े जैसे होते हैं । जैसे मिट्टी के घड़े में मामूली से धक्के से ही दरार पड़ जाती है और फिर वह न जोड़ा जा सकता है न किसी और काम का रहता है । उसी प्रकार दुर्जनों के चरित्र में भी दृढ़ता नहीं होती । वे एक बार बिगड़ गए तो फिर सुधरते नहीं न समाज के किसी काम आते हैं ।

तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय ।
सहजै ही सिधि पाइये, जो मन जोगी होय ।।

जो व्यक्ति संसार के चक्र से छूटकर मोक्ष की कामना से योग साधना करता है, वह योगी कहलाता है । इस प्रकार की साधना के लिए ध्यान और मन की एकाग्रता बहुत ज़रूरी होती है । इसके लिए जीवन में कुछ बाहरी अनुशासन भी होते हैं, जैसे रहन सहन, खान पान, पोशाक, आचार व्यवहार आदि के नियम । कबीर इस दोहे में इस विडंबना (irony) की ओर संकेत करते हैं कि, लोग योग साधना में आम तौर पर इन बाहरी अनुशासनों को ही प्रमुखता देते हैं । वे गेरुए वस्त्र धारण कर लेते हैं, जटाजूट बढ़ लेते हैं या सिर मुँड़वा लेते हैं, किंतुमन की एकाग्रता और ध्यान आदि की ओर से वे लापरवाह रहते हैं । उनके मन में वैराग्य का भाव नहीं होता । उनका ध्यान संसारी बातों पर लगा रहता है और वे माया मोह, लोभ आदि के चक्करों में फँसे रहते हैं ।
कबीरदास जी कह रहे हैं, लोग वैरागी का बाना (वेश,पहनावा) तो धारण कर लेते हैं पर उनके मन में वैराग्य का भाव होता ही नहीं । यदि उनके मन में वैराग्य हो (और वे हृदय से साधना करें) तो उनके उद्देश्य की सिद्धि बहुत सहजता से ही हो जाए ।वैराग्य बाहरी दिखावा नहीं अंतर का भाव है ।

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    बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर । // काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खानि । कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं,…

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