सुशीला की कहानी (२)
राम बजाज
कुछ ऐसे पड़ोसी, और “मित्र कहलाने वाले,” तो थे ही जो उसकी तपस्या से थोड़ा जलते थे । वह उससे कई व्यक्तिगत और कष्टप्रद प्रश्न करते, जिससे उसको बहुत घृणा और बेचैनी होती थी । उसके कुछ “मित्र” उससे कभी-कभी कहते – तुम तो अभी भी जवान हो तो क्यों नहीं दूसरी शादी कर लेती ? इससे बच्चों को पिता मिल जायेगा और तुम्हें एक पति । लेकिन सुशीला सिर्फ बच्चों के बारे में सोच कर ऐसे विचारों से बहुत ही विचलित हो जाती और उनसे ऐसी बातें न करने का आग्रह और प्रार्थना करती । लेकिन कुछ लोगों को तो सिर्फ दूसरों के जीवन में संघर्ष और दर्द लाने में सुख मिलता है । ये भी कहने लायक है, कि जैसे सुशीला को लोग अपने कुव्यवहार से परेशान करते और उसकी निंदा करते, बड़े ही शर्म की बात है कि वे बच्चों को भी नहीं छोड़ते । कई लोग अपने बच्चों के द्वारा सुशीला के बच्चों को चिढ़ाने और बेमतलब परेशान करने से भी नहीं रोकते । उन्होंने शायद कभी नहीं सोचा होगा कि आखिर वो किसकी निंदा कर रहे हैं और इसमें सुशीला का कोई दोष है क्या ? अगर उसने अपने पति को खो दिया तो क्या यह उसका दोष है? अगर वो छोटे-मोटे काम कर के, अपने ही परिश्रम से जीविका चला रही है तो क्या ये बुरा है? अगर वो अपनी मर्ज़ी से अकेले रह कर अपने बच्चों का पालन कर रही है, तो इस व्यव्हार में क्या कोई त्रुटि है ? अगर वो दूसरा विवाह नहीं करना चाहती, क्यों कि उसने ऐसे कई लोगों के बारे में देखा और सुना है जिनके ऐसे सम्बन्ध में बच्चे ही सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं । कभी कभी उनका पालन पोषण और जीवन कई कठिनायों में फँस जाता है, दुःख-दर्द में कटता है । कहते हैं कि ऐसा व्यव्हार वो करते हैं जिन्हें “और कोई काम नहीं होता” या वो अपने दुःख को अनदेखा कर दूसरों के दुःख को प्राथमिकता देकर अपना मन बहलाने की चेष्टा करते हैं । ज्यादहतर दूसरों का दुःख सच्चा नहीं लेकिन उनके दिमाग में उत्पन्न हुआ भ्रम होता है । उन्होंने अपने चरित्र और व्यव्हार को आइने में कभी नहीं देखा है और वे मुस्करा कर अपने दुःखों को झूठी मरहम लगाते हैं और दूसरों को उदास देखर झूठा और क्षणिक आनंद लेते हैं । सुशीला और उसके बच्चों का ऐसे लोगों से दूर रहने की आदत और कोई बदला लेने की प्रवृत्ति या किसी प्रकार की प्रतिक्रिया न होने के कारण लोग आप ही शर्मिंदा हो कर चुप हो जाते । सुशीला को पता था कि ये तो प्रकृति का नियम है और अपनी परिपक्वता और सिद्धि के कारण वो जल्द ही ऐसी बातें अपने मस्तिष्क से निकाल देती । वो अब तक “पक्की” हो गयी थी और अपनी मालकिन और अच्छे मित्रों के बीच रह कर उनकी सुखद बातों से अपने को व्यस्त रखती । अपने बच्चों के विशुद्ध और निष्ठावान प्रेम में इतना आनंद लेती कि वो अपने को दुनिया की सबसे भाग्यशाली महिला समझती और अपने संकल्प में उसकी दृढ़ता और बढ़ जाती । यह सुखमय भावनाएं उसको हमेशा प्रसन्न रखतीं जिससे उसके बच्चे भी उत्साहित होते और मानों ये एक दूसरे को प्रेरणा देते हों । ऐसा जीवन उन्हें प्रसन्न, सम्पूर्ण और सकारात्मक रखता । उन्हें और किसी चीज की आवश्यकता ही नहीं लगती ।
गाँव वाले लोग और उसके रिश्तेदार भी सुशीला की ख़बर रखते और कभी-कभी जब वे इलाहाबाद आते तो उससे ज़रूर मिलते थे । उसके सच्चे मित्र, उसकी लगन और बच्च्चों के लिए उसके प्रेम से बहुत प्रभावित थे, और आशीर्वाद देते हुए, उसकी उन्नति की और सुखी जीवन की आकांक्षा करते थे । सुशीला के बच्चों से तो वे बहुत ही प्रभावित थे कि वो कैसे अपनी माँ के साथ व्यव्हार करते, उसकी आज्ञा मानते और कितने मेहनती और सुशील थे । लोगों की बातें सुन कर वो शरमा जाती और कृतज्ञता से सब का आभार प्रकट करती । उनके आशीर्वाद और समर्थन के सिवाय सुशीला को तो और कुछ चाहिए ही नहीं था ।
सुशीला के देवर और देवरानी भी इलाहाबाद आते और उसके घर में रहते । सुशीला उनसे बड़े ही सम्मान से साथ व्यव्हार करती । देवर और देवरानी के जीवन में दर्द और निराशा ने वास कर लिया था । उनके विवाह को १६ वर्ष हो गए थे लेकिन उनकी कोई संतान नहीं हो रही थी । उन्होंने कितने डाक्टरों से इलाज करवाया, मंदिर में पूजा पाठ कराया, ज्योतिषियों के मंत्र जपे, उपवास रखे, मज़ारों में दुआएं मांगीं, मन्नते कीं । इन सब प्रयत्नों के बाद भी वे संतानप्राप्ति में असफल रहे । अब अंत में वे इलाहाबाद के एक प्रसिद OB/GYN और Fertility Specialist से दूसरी बार मिलने के लिए आए थे। पहली मुलाकात में डॉक्टर ने बहुत विस्तार से बात-चीत की थी और दोनों की जाँच के लिए कई तरीके के samples लिए थे । आज वो सारे परिक्षण के पश्चात अंतिम निर्णय बताने वाले थे । सुशीला ने प्रस्ताव दिया कि वह उनके साथ डॉक्टर के यहाँ जाये जिससे शायद देवरानी को घबराहट कम हो । मन को थोड़ा ही सही, सुकून मिले । देवर को ये बात बहुत अच्छी लगी और देवरानी भी सहमत थी । डॉक्टर ने बहुत अच्छी तरह से परिक्षण के परिणामों को समझाया, जिसका संक्षिप्तार्थ यह था कि उनके पास सिर्फ एक ही विकल्प बचा है और वो है, कृत्रिम गर्भाधान (IVF) का । डॉक्टर ने बड़े ही विस्तार से बताया कि, क्यों कि देवरानी की उम्र ३५ वर्ष से अधिक है, इसलिए इस पद्धति से भी बच्चे होने की सम्भावना कम है। इस में खर्च भी लाखों का होगा । उनको बहुत सावधानी बरतनी होगी क्यों कि दर्द और तकलीफ की भी कमी नहीं होगी । डॉक्टर ने ये भी बताया कि IVF पहली बार में सफल हो उसका भी कोई आश्वासन नहीं है । अब यह निर्णय सिर्फ देवरानी और उनके पति के ऊपर है । सुशीला, देवर और देवरानी को आशा/निराशा ने घेर लिया और उनको कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें । सुशीला ने संकल्प किया कि इस स्थिति में वो अपनी सलाह देने से जितनी दूर रहे उतना ही अच्छा है क्योंकि ये दोनों पति-पत्नी का व्यक्तिगत मामला है । पति-पत्नी जो भी निर्णय लें सुशीला उनका साथ देगी और जितनी भी सहायता कर सके, करेगी ।
बच्चों को सँभालते, प्रोफेसर के घर काम करने के साथ पढ़ाई में भी अपनी मेहनत से सुशीला को समय का पता ही नहीं चलता और कब ८ वर्ष बीत गए और सन २०१३ आया कुछ खबर नहीं थी । खबर सिर्फ इतनी थी की उसे इंटरमीडिएट (१२ वीं) की परीक्षा में सफ़लता मिली । लेकिन उसकी शिक्षा की इच्छा अभी अधूरी थी । असल में वो एक अकाउंटेंट बनना चाहती थी । जब उसे पता चला कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय डिस्टेंस लर्निंग से B,Com की degree देता है, उसने वहां अप्लाई किया और उसमे दाखिला ले लिया । ४ साल की अवधि में कड़ी मेहनत के बाद वो २०१७ में उसने B.Com (accounting) की degree हासिल कर ली । इस बीच प्रोफेसर को, बड़ी उम्र होने के कारण, हृदय -रोग हो गया था और वे रिटायर होकर अपने गाँव जाना चाहते थे । उन्हें हिम्मत नहीं हो रही थी की वे सुशीला को कैसे बताएं । उनकी तो इच्छा थी की वो सुशीला को भी साथ ले जाएँ, लेकिन ये संभव नहीं था क्योंकि उन्हें पता था कि सुशीला को बच्चों का भविष्य बनाना है । सुशीला भी बड़ी उथल-पुथल में थी क्योंकि उसने कम्पूटर से और social-media से research करने के बाद इलाहाबाद बैंक में साक्षात्कार (interview) किया था । बैंक को एक accountant की सख्त आवश्यकता थी क्योंकि एक सीनियर accountant रिटायर कर चुके थे । सुशीला की कहानी सुनने के बाद, और उसकी आकांक्षी प्रवृत्ति , सुशीलता, कर्मठता और B.Com के aअच्छे अंक देखकर बैंक ने सुशीला को तुरंत ही नौकरी का प्रस्ताव दे दिया, जो उसने बड़े ही आभार के साथ स्वीकार किया और एक सप्ताह बाद नौकरी आरंभ करने का निश्चय किया । बैंक में एक अकाउंटेंट की नौकरी कीअच्छी साख होती है और उसकी योग्यता के अनुसार उसे १ लाख रुपये प्रतिवर्ष का वेतन तथा अच्छा भत्ता और भविष्य में तरक्की का प्रशासन था । सुशीला तो सातवें असमान पर थी क्योंकि उसने सपनों में भी ये कभी नहीं सोचा था ।
प्रोफेसर और उनकी पत्नी ने जब यह सुना तो वे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने चैन की साँस ली कि सुशीला अब अपने पैरों पे खड़ी हो जाएगी । उनको कोई संदेह नहीं था कि वो सक्षम है और नयी नौकर में बहुत सफल होगी । उन्हे ख़ुशी थी कि अब वो अपने गाँव जा कर विश्राम कर सकते हैं । सुशीला ने उन्हें बहुत ही आदर से और बड़ी कृतज्ञता और अश्रु-पूर्ण नेत्रों से धन्यवाद दिया । उसने अपने मन की भावना को व्यक्त करते हुए कहा कि उनकी सहायता और अथाह कृपा के कारण ही वह अब समर्थ है, वे उसकी माता-पिता के समान हैं और उनके आशीर्वाद का आग्रह किया । प्रोफेसर और उनकी पत्नी ने बड़ी प्रसन्नता से आशीर्वाद दिया और बोले की वो उन्हें माता पिता समझना कभी नहीं भूले । चाहे वे शब्दों में प्रकट नहीं कर पाए , लेकिन उनके मन में भी उसके लिए अथाह प्रेम और प्रशंसा है । सुशीला ने उनसे आग्रह किया कि वे उससे और बच्चों से मिलने आया करें, जिससे वो लोग भी अकेलापन नहीं महसूस करें । उन्होंने ये भी कहा कि इस नयी नौकरी में अगर कभी भी उसे किसी सहायता की, अथवा किसी परामर्श की आवश्कयता पड़े, तो कभी भी मांगने में हिचकिचाये नहीं । सुशीला को यह शब्द अमृत की तरह लगे और उनके प्रति उनकी श्रद्धा और भी बढ़ गयी ।
सुशीला अपने परिवार में व्यस्त थी । पहले तो बच्चों की सारी चीजों की व्यवस्था करने और नौकरी में ध्यान से अपना काम करने में समय कैसे बीत जाता था, कुछ पता ही नहीं लगता था । जैसे बच्चे बड़े हुए और अपने कई काम स्वयं करने लगे, तो सुशीला को थोड़ा खाली समय मिलना शुरू हुआ । इस समय को बिताने के लिए उसने एक “नारी-उद्धार” संस्था में भाग लेने का निर्णय किया । यह संस्था कन्यायों और महिलाओं को कलाएं सिखाने के लिए स्थापित की गयी थी । शिक्षा देने के साथ-साथ, वह उन्हे अपना छोटा-मोटा व्यापार शुरू करने के लिए उन्हे उत्साहित करती, उनकी सहायता करती जिससे कि वे अपना जीवन में गरीबी में बिताने के बजाय अपने पैरों पे खड़ी हो सकें और अपनी आर्थिक दशा सुधार सकें । सुशीला को सिलाई तो आती ही थी इसलिए उसने स्कूल और कॉलेज की लड़कियों को सिलाई सिखाना शुरू किया । सिलाई सिखाते-सिखाते उसने ये अनुभव किया कि सिखाने से अधिक वो नयी-नयी चीज़े ख़ुद सीख रही थी और उसकी कला में निखार आ रहा था । सुशीला ने एक युवा किशोरी , सिमरन, में अधिक रूचि हो गयी । सिमरन सिलाई में निपुण थी और साथ ही कॉलेज में फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर रही थी । सुशीला को लगता था कि इस संस्था में शायद उसकी जान-पहचान बढ़े क्योंकि इस संस्था के इन्चार्ज का कई प्रसिद्ध कंपनियों और डिज़ाइनरों से संपर्क था और वे इस संस्था से सलाह लेते थे और उनकी डिजाइनों की सराहना करते थे और कभी-कभी खरीदते भी थे । सिमरन महिलाओं के कुरते-पाजामें, चुन्नियाँ, घागरे, शादी की ड्रेस्सेस डिज़ाइन करने और सिलाई करने में काफी माहिर हो गयी थी और इस संस्था में वो अपनी कला का विकास कर रही थी। उसे अपनी उम्र की दूसरी लड़कियों को अपनी कला का प्रदर्शन करने और उन्हें सिखाने में आनंद आता था । उसे इस अवस्था में पैसों का ख्याल ही नहीं आता क्योंकि वो सोचती कि इसके लिए पूरी ज़िन्दगी पड़ी है । सुशीला को भी सिखाने और सीखने में बड़ा आनंद मिलता था और उसे संस्था में जाने की उतावली रहती थी । इस संस्था में भाग लेने के लिए एक छोटी सी फीस थी । क्योंकि ये इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राजोयित थी, उन्हें धन की कमी नहीं थी । इसके अतरिक्त इन्हें डिज़ाइनर भी consulting फी देते । इस संस्था की आर्थिक स्थिति अच्छी होने के कारण ये अपने सदस्यों को अपना व्यापर आरंभ करने में सहायता करती थी और अब तक कई छोटे व्यापर स्थापित करा चुकी थी।
सुशीला का परिवार खुश था और जीवन अच्छी तरह से चल रहा था । अक्षय अपने स्कूल में बहुत सक्रिय था और पढ़ाई के अतिरिक्त उसको गाने का और dance का बहुत शौक था । स्कूल में इन के लिये क्लब्स थे और बच्चे अध्यापकों के निरिक्षण में गाना और dance सीखते थे । अक्षय इन दोनों में बड़ा निपुण था । एक बार उसने TV के कार्यक्रम “सा रे गा मा पा” के trial के लिए दस घंटे लम्बी लाइन में खड़े होने के बाद पहले चरण के चुनाव में सफलता प्राप्त की लेकिन दूसरे चरण में असफल हो गया । लेकिन वह निराश नहीं हुआ क्योंकि उसको पता था कि इसके लिए बहुत ही परिश्रम ही नहीं भाग्य और प्रतिभा की भी आवश्यकता होती है । इसी तरह उसको dance के trials में जाने की इच्छा थी, लेकिन TV में dance के program देखने के बाद उसने समझा कि उसका भविष्य इसमें नहीं है और उसने अपनी पढ़ाई को प्राथमिकता देने का निश्चय किया, लेकिन उसने किसी तरह, पढ़ाई से समाया निकाल के, गाने और dance करने का शौक जारी रखा । वह दोनों में पूरी मेहनत से भाग लेता और अधिक निपुणता पाने का पूरा प्रयास रखता कि शायद कभी ।
अक्षय ने १५ साल की उम्र में हाई स्कूल (१० वीं ) की परीक्षा फर्स्ट क्लास में अच्छे अंको से पास की । अपने स्कूल में उसका दूसरा स्थान था और उसे विज्ञान और गणित में उसे distinction मिला । उसको अब इंटरमीडिएट (१२ वीं) के लिए अपने विषयों का चयन करना था । ये कोई साधारण कार्य नहीं है क्योंकि इस पर सारा भविष्य निर्भर करता है । उसके पास चार बोर्ड में से एक का चयन, और उसके हिसाब से स्कूल और विषयों का चयन, करना था । अक्षय और सुशीला को कम्पूटर में बहुत रिसर्च करने के बाद भी पूरी तरह संतोष नहीं हुआ और वह निर्णय नहीं ले पा रहे थे । अचानक अक्षय को यह ख़याल आया कि उनके पास एक बड़ा ही अच्छा संसाधन है जिसके बारे में उसने अभी तक नहीं सोचा । ये थे — प्रोफेसर । अक्षय और सुशीला ने उनसे संपर्क किया और इस बारे में सलाह और वार्तलाप करने के लिए गए । प्रोफेसर भी खुश थे कि सुशीला और अक्षय ने उन पर विश्वास किया । सारी बातें सुनने के पश्चात उन्होंने, उनकी आर्थिक स्थिति और अक्षय की प्रतिभा को dह्याँ में रखते हुए सुझाव दिया कि वो UP माध्यमिक शिक्षा परिषद् (UPMSP) में एडमिशन ले । इसके कारण ये थे कि ११वीं और १२वीं की पढ़ाई के लिए जो चार प्रणालियाँ संभव थीं उनमें से CBSE और ICSE की फीस बहुत थी और IB इलाहबाद में सुलभ नहीं था । दूसरी बात, क्योंकि अक्षय पढ़ाई में बहुत तेज था वो UP बोर्ड की कमियों से ऊपर उठ सकता था । अक्षय और प्रोफेसर ने मिल कर ये भी सोचा कि वो अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई करे और science stream में English ,Physics ,Chemistry मुख्य विषयों और साथ Biology लेकर इंटरमीडिएट में मेहनत से पढ़ाई करे । इस तरह उसके पास इंजीनियर या डॉक्टर बनने के दोनों विकल्प उपलब्ध होंगे। अक्षय और सुशीला ने प्रोफेसर का आभार व्यक्त किया और अक्षय ने पास के स्कूल में एडमिशन ले लिया ।
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