चेहरे

हमारी भावनाएँ
नन्हे शिशुओं की तरह खेलती रहती हैं
मन के धूल भरे आँगन में

हाथ-पैर लिथड़ जाते हैं धूल में
कपड़ों पर फैल जाती है गंदगी
और अँगनाई के कच्चे कोने की मिट्टी
लार में लिपट कर
बन जाती है गालों का चंदन

पर
जब कोई उन्हें देखने आता है –
या हम ही उन्हें किसी को दिखलाने जाते हैं
तो चटपट

पोंछ देते हैं धूल
धो देते हैं मिट्टी –
कपड़े बदलकर
काजल-टीके से सँवारकर
बाहर लाते हैं

कि
जो कोई उन्हें देखे
बरबस ही कह उठे

“कितने प्यारे हैं बच्चे!
“कितनी सुघड़ है गृहिणी!

— कुसुम बांठिया

Image Credit:   https://www.flickr.com/photos/gnuckx/4816724504
पद्य (Poetry)

Dear Rain

My love, my heart whispers to you,In your gentle drops, my soul renews.You bring a smile, a soft delight,Farmers’ hearts rejoice, with hope so bright.

Read More »
गद्य (Prose)

मेरी अज्जी और मैं (९/२१)

शुरुआत में जाइए मेरी अज्जी और मैं (१/२१) स्त्री परिवार की धुरी होती है; परिवार समाज की बुनियादी इकाई होता है; समाज मिलकर राष्ट्र को

Read More »
गद्य (Prose)

मेरी अज्जी और मैं (८/२१)

शुरुआत में जाइए मेरी अज्जी और मैं (१/२१) इसके शीघ्र बाद ही, शायद घर में नन्हे-नन्हे बच्चे होने के कारण, उनका तबादला सुम्बावांगा हो गया

Read More »