पुलिस की मृगतृष्णा (भाग १)

पुलिस की मृगतृष्णा (भाग २)

मेरा शहर, भारत का एक बड़ा ही महत्वपूर्ण शहर है । ३० लाख से ऊपर की आबादी वाले इस शहर में हर प्रकार के व्यवसाय और सेना का बड़ा केंद्र हैं, और चमड़‍े के व्यापार में तो यह विश्वविख्यात है ।
यह एक और क्षेत्र में बड़ा “विख्यात” है – वह है प्रदूषण । इस मामले में इसका कोई मुकाबला नहीं . पूरे विश्व में वायु में कण – प्रदूषर्ण के मामले में यह प्रथम स्थान पर है । इस के अतिरिक्त और भी कई प्रदूषण यहाँ ऐसे हैं जिनका मुकाबला करना असंभव है । अरे, पुलिस में, बिजली में, अदालत में और राजनीति में भ्रष्टाचार, आर्थिक भ्रष्टाचार, महिला शोषण और छेड़खानी ,भाषा की अश्लीलता, पॉकेटमारी और चोरी – डकैती भी नैतिक-प्रदूषण ही तो हैं । शहर की अनैतिकता के बारे में कई चुटकुले भी हैं,जैसे – एक बार, एक हवाई जहाज़ में उड़ते एक विदेशी यात्री ने जब अपनी बायीं कलाई को देखा तो चिंतित हो कर बोल पड़ा – “अरे मेरी घड़ी गायब है”, तो मेरे शहर का एक सहयात्री मुस्करा कर बोला –“न कोई अचरज है, न कोई शक है । हम लोग ज़रूर “मेरे शहर” के ऊपर उड़ रहे होंगे ।”
इस शहर में एक सरकारी कर्मचारी श्री भुवनेश चन्द्र गुप्ता अभी हाल ही में ६० वर्ष की उम्र में अनिवार्य सेवानिवृत्ति के बाद, अपनी पत्नी, अपने बेटे विघ्नेश और बहू के साथ रहते थे । उनकी बेटी, अपने इंजीनियर पति के साथ, लखनऊ में रहती थी
सेवानिवृति के लगभग छः महीने बाद ही भुवनेश जी को पता चला कि उनकी पत्नी Alzheimer से पीड़ित हैं । डॉक्टर ने निर्देश दिया कि उनका ख्याल रखना बहुत ही आवश्यक है, क्योंकि वो कभी भी किसी संकट में पड़ सकती हैं । उचित देख-रेख हो सके इसलिए यह तय हुआ कि भुवनेश जी अपनी पत्नी के साथ एक अलग कमरे में रहेंगे । भविष्य की जरूरतों को देखते हुए बाप-बेटे ने घर का थोड़ा विस्तार करने की योजना – पीछे एक कमरा और उससे जुड़ा बाथरूम और एक छोटा ड्राइंग रूम, बनाई ।
आर्थिक दृष्टिकोण से भुवनेश जी को इस निर्माण कार्य के खर्चे की चिंता नहीं थी क्योंकि उनकी सारी जिम्मेदारियां तो पूरी हो चुकी थीं और उनके provident fund से उन्होंने FD बनवा लिए थे, लेकिन क्योंकि बैंक की एक योजना में कम ब्याज पर उधार मिल रहा था, उन्होने इस खर्चे के लिए बैंक से 5 लाख रुपये से उधार लेने का निश्चय किया । कांट्रेक्टर ने योजना का खर्च लगभग ४ लाख बताया था । योजना के अनपेक्षित खर्चों के लिए, भुवनेश जी ने १ लाख रूपये ज्यादह के उधार के लिए बैंक से आवेदन किया । आवेदन पत्र जमा करने पर बैंक अधिकारी ने बताया कि और कई काग़ज़ात जमा करने होंगे जिनसे भुवनेश जी की उधार की किश्तें भरने का सामर्थ्य आँका जा सके । अधिकारी ने उन्हे काग़ज़ात जमा करने के लिए एक सप्ताह की मोहलत दी । अगले सप्ताह जब भुवनेश जी ने सारे काग़ज़ात, अपने बेटे से जँचवा के, जमा करवाए तो अधिकारी ने बताया कि बैंक बहुत व्यस्त है लेकिन वे पूरा प्रयत्न करेंगे कि सारी जाँच – पड़ताल दो सप्ताह में हो जाये । उसके बाद वह भुवनेश जी से संपर्क करेंगे ।
भुवनेश जी जब दो सप्ताह बाद जब बैंक गए तो अधिकारी बोला कि अभी भी कुछ काग़ज़ात कम हैं, और बोला कि यह दो काग़ज़ात मैंने आपको नहीं दिए थे, इनको भर कर कल ले आइयेगा । भुवनेश जी निराश हो कर घर गए तो देखा कि वे दो काग़ज़ात तो इन्होने पहले ही दे दिए थे । उनको ये लगा कि अधिकारी उन्हें बस देर लगा कर तंग कर रहा है । निस्संदेह, वह रिश्वत का इंतज़ार कर रहा है, जो उन्होंने नहीं देने का निर्णय किया था ।
लेकिन मरता क्या न करता, भुवनेश जी फिर बैंक गए और अधिकारी को बताया कि वह दो फॉर्म वह पहले ही दे चुके हैं । अधिकारी ने अपनी ग़लती तो नहीं मानी, लेकिन बोला कि सारे काग़ज़ात ठीक हैं और अब आपको बैंक मैनेजर से मिलना है । वे जब स्वीकृति देंगे तो आपको चेक मिल जायेगा । वे तीन घंटे रुके । बैंक बंद होने का समय आ गया और उन्हें मैनेजर से मिले बिना फिर घर जाना पड़ा । अधिकारी ने कहा कि वह कल आ जायें और कल उनका नंबर सबसे पहला होगा ।
दूसरे दिन भुवनेश जी बैंक मैनेजर से, उनके दफ्तर में जहां केवल मैनेजर और अधिकारी ही थे, मिले तो उन्होंने कहा “आपके सारे काग़ज़ात सब ठीक हैं । अब आपको बैंक के रिवाज़ के अनुसार काम करना होगा । वैसे तो बैंक का रिवाज़ यह है कि पांच लाख के पीछे ५०,००० रु, लेकिन मैं आपको बड़ी कन्सेशन दे रहा हूँ, इसलिए केवल ३०,००० रु खर्च करने होंगे । आप ३०,००० रु का चेक, पास वाली ब्राइट फर्नीचर स्टोर, के नाम लिखकर मैनेजर को दे दीजिये और कहिये कि यह मैंने भेजा है ।” भुवनेश जी आश्चर्य में पड़ गए कि मैनेजर खुल्लम-खुल्ला रिश्वत मांग रहा है, और उसे छिपाने के लिए चेक पर फर्नीचर स्टोर का नाम लिखवा रहा है । बैंक मैनेजर ने यह भी बहुत आग्रह से बोला कि उनको अगर उधार चाहिए तो इसके सिवा और कोई रास्ता नहीं है । यह तो सिर्फ उधार का ६% ही है । लोग तो १०-१२% देने को तैयार हो जाते हैं । भुवनेश जी तो आग-बबूला हो गए, लेकिन अपने को वश में करते हुए, अपना गुस्सा पी कर, चेकबुक साथ न होने का बहाना बना कर वहाँ से निकाल कर चल दिये ।
घर पहुँचने पर जब उन्होंने ये बात अपने बेटे को बताई तो वो उतना गुस्सा नहीं हुआ, क्योंकि उसने ये वारदातें कई लोगों से सुन रखी थीं कि यह मैनेजर बहुत ही भ्रष्ट है और लोगों को बड़ा तंग करता है । लेकिन वो चालाक भी बहुत है, क्योंकि किसी भी किसी मामले में अपना नाम नहीं आने देता है । इसलिये इसे पकड़ना मुश्किल है । उसे यह भी पता था, बेचारे गरीब लोग जब जन-सेवा बैंक से उधार लेने जाते हैं और वहां बेइज्जत और निराश हो कर निकलते है और वे पुलिस में FIR लिखवाने जाते हैं, पुलिस कई बार तो FIR लिखने से इन्कार कर देती है — यह कह कर कि उनके पास कोई सबूत नहीं है, या उन्हें रिश्वत तो देनी ही पड़ेगी । कभी – कभी तो पुलिस भी उनसे रिश्वत की मांग करती है, और उन्हें लेने के देने पड़ जाते हैं । इसीलिये, इस मैनेजर के खिलाफ़ कोई केस दर्ज नहीं है और वह बेफिक्र हो कर बड़े आराम और वैभव की ज़िन्दगी जी रहा है ।
भुवनेश जी के बेटे ने उन्हें यह भी बताया कि उसने उनको चेतावनी तो दी थी लेकिन उन्होने ने सुनी-अनसुनी कर दी थी और वो उनसे ज्यादह बहस नहीं करना चाहता ।
भुवनेश जी की ज़िद पर विघ्नेश उनके साथ फिर शिकायत दर्ज़ करने पुलिस के पास गया तो पुलिस ने उनका FIR दर्ज करने में कई विघ्न डाले । बहुत वार्तालाप और धमकियों के पश्चात जब दारोगा के पास पंहुचे तो उसने तो और फटकारा और बोला कि उसके पास इन सब छोटे-छोटे मामलों के लिए समय नहीं है । जब तक वे कोई ठोस प्रमाण नहीं लायेंगे, वह उनसे बात भी नहीं करेंगे । उसने कहा कि आगे से वे पुलिस स्टेशन नहीं आयें और उन्हे धक्के मार कर बाहर निकाल दिया और कहा कि अगर वह जनता में यह बात फैलायेंगे तो उनसे बुरा कोई न होगा । भुवनेश जी और विघ्नेश बड़े ही दुःखी मन से वहां से निकले आये । उनको अब तो किसी सबूत की आवश्कयता नहीं थी कि बैंक मैनेजर और पुलिस आपस में मिले हैं और लोगों को लूट कर अपनी जेबें भर रहे है ।
इस अपमान को सहने के बाद, बड़े ही सोच-विचार के पश्चात भुवनेश जी के बेटे को न कुछ और सूझा तो उसने इन घटनाओं का विवरण अपने दोस्तों में किया लेकिन उससे भी कोई लाभ नहीं हुआ क्योंकि वे सब भी ऐसी वारदातों से अवगत थे । सिर्फ एक मित्र ने उसकी सहायता करने का वादा किया ।
थोड़े ही दिनों की जाँच पड़ताल के बाद पता लगा कि यह तो मामूली बात है । ऐसी दसों-पचासों शिकायतें सब को पता हैं, लेकिन कुछ हुआ नहीं है । किसी ने Social Media में इस बारे में चर्चा की बात की तो उसमें भी ज्यादा सफलता नहीं मिली, क्योंकि कोई प्रमाण नहीं था और पीड़ित लोग मैनेजर के साथ अपना नाम नहीं जोड़ना चाहते थे । एक तरह से उन्हें शर्म आती थी कि वे बेवकूफ बन गए ।
शहर के उस इलाके की पुलिस जनता की प्रतारणा के मामलों में बहुत भ्रष्ट थी, और है । रिश्वत लेना, जाँच – पड़ताल में देर करना या नज़र अंदाज़ कर देना, गरीब और पीड़ित लोगों की शिकायतें सुन कर भी अनसुनी करना और FIR दर्ज करने में पीड़ितों को तंग करना जिससे वो कुण्ठित और निराश हो जाएँ, यह तो मामूली बातें हैं । यहाँ तक कि कुछ इमानदार पुलिस कर्मचारी स्वयं भी बड़े असंतुष्ट थे – विशेषतः नए उत्साहित जवान, जो आदर्शवादी थे और थोड़े समय पहले ही Police Academy से निकल कर पुलिस बल (Police Force) में आये थे । उनको समाज सेवा की अच्छी शिक्षा दी गयी थी और उनमें सच्ची आस्था थी । वे समाज और पुलिस को सुधारने की आकांक्षा रखते थे ।
मेरे शहर के इस इलाके के दारोगा को अगर सिर्फ “भ्रष्ट” कहा जाये तो सच का निरादर होगा, क्योंकि वो तो “महा-भ्रष्ट” था, भ्रष्टों का बाहुबली और भ्रष्टचार में जैसे Ph.D. कर चुका था । शहर के इलाके में सारे नागरिक उसकी निंदा करते थकते नहीं थे । उसने सबको दहशत में रखा हुआ था । लोग जानते थे कि उसकी पहुँच बहुत दूर तक है । अफवाहें तो यहाँ तक थीं कि मुख्यमंत्री भी उसकी जेब में है क्योंकि उसे उनके कुछ भेद पता हैं । इस दारोगा का ट्रान्सफर भी बहुत जल्दी हो जाता था और ये अभी एक वर्ष से ही यहाँ आया था । उसकी पदोन्नति भी नहीं हुई थी, न ही उसे चाहिए थी, क्योंकि दारोगा के पद पर उसका इतना पैसा बन जाता था जितना वो ऊंचे पद पर मुश्किल से ही बना पाता ।
हाल ही में पुलिस बल में नियुक्त चार जवान, जिनकी प्रवृतियों बारे में ऊपर बताया जा चुका है, बड़े अच्छे मित्र थे । उनके विचार आपस में मिलते थे । दो मित्र मेरे शहर के इलाके के पुलिस बल में थे, और दो पड़ोस वाले इलाके के पुलिस बल में । ये चारों दिन के खाने के लिए एक छोटे से रेस्टोरेंट में अक्सर मिलते थे । गप्पें करने के सिवाय उनकी बातचीत में पुलिस बल के भ्रष्टाचार, दोनों दारोगाओं की शिकायतें और कुछ न कर पाने की असमर्थता के बारे में बातें होती रहती थीं ।
एक दिन जब यह चारों खाने के लिए बैठे अपने दारोगाओं के बारे में बातचीत कर रहे थे तो भुवनेश जी विघ्नेश के साथ वहीं खाने के लिए आये और उन्हे उन चार जवान उनके साथ वाली टेबल पर ही जगह मिली । उनकी बातें भुवनेश जी और विघ्नेश को भी पूरी तरह सुनायी दीं । सुनने के बाद उन्हे अहसास हुआ कि वे अकेले ही भ्रष्टाचार के शिकार नहीं हैं — भ्रष्टाचार तो सर्वव्यापी और बेइंतिहा फैला हुआ है । जनता के सिवाय, कुछ अच्छे पुलिस वाले भी परेशान और दुःखी हैं और अपने को कुछ करने में असमर्थ महसूस कर रहे है ।
कुछ दिनों बाद एक बार फिर उसी रेस्टोरेन्ट में वह चार जवान और, भुवनेश जी और विघ्नेश, एक समय खाना खाने पहुंचे । इस बार वह चार न सिर्फ पुलिस के बारे में लेकिन जन-सेवा बैंक के मैनेजर के बारे में भी चर्चा कर रहे थे, क्योंकि भुवनेश जी की तरह ही एक पुलिस के जवान के माता-पिता को भी उसने उधार के बारे में बहुत परेशानऔर व्यथित कर दिया था, और उनकी बेइज्जती कर उन्हें बैंक से बाहर निकलवा दिया था ।
जब वो पुलिस वाले और भुवनेश जी रेस्टोरेंट से बाहर निकले तो भुवनेश जी ने उन्हें रोक कर हाथ जोड़ कर विनती की और पूछा कि क्या वे अपना कुछ समय देकर कहीं एक पार्क में मिल सकते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी व्यथा उन्हें बतानी है । थोड़ी हिचकिचाहट के बाद उन्होंने हाँ कर दी और चौथे दिन शाम के समय मिलना निश्चित किया ।
उस मीटिंग में भुवनेश जी ने अपने बैंक और पुलिस के साथ हुई घटनाओं और अत्याचारों के बारे में विस्तार से बताया और उन चारों (अखिल, अल्ताफ, गौरव और रोशन) ने बड़े ध्यान और जिज्ञासा से सुना । उन्होंने भुवनेश जी को सांत्वना दी और वादा किया कि जल्द ही कुछ करेंगे, क्योंकि उन्होंने और भी कई लोगों से और अपने परिवार वालों से भी बैंक और पुलिस की शिकायतें और उनके कुकृत्यों के बारे में सुना था ।
चारों जवान पुलिस वालों ने सोचा कि अब उनको कुछ करना चाहिए क्योंकि सरकार और पुलिस अधिकारी तो कुछ करने से रहे । उन्होंने एक योजना बनाई और उसे कार्यान्वित करने की ठानी । कई बार बात-चीत, विचार-विमर्श और सुधार के बाद योजना तैयार हुई । उन चारों के गुट में, आपस में सहमति के बाद, उन्होंने तैयारी शुरू कर दी ।
सबसे पहले उन्होंने कार की एलुमिनियम की १३ लाइसेंस -प्लेट्स तैयार कीं । सभी लाइसेंस-प्लेट्स पर एक ही नंबर था और ये लाइसेंस-प्लेट्स बड़ी आसानी से असली लाइसेंस-प्लेट के ऊपर फिट की जा सकती थीं । उन्होंने अपनी कार की प्लेट पर कई बार प्रयत्न किया और पता लगाया कि, प्लेट्स बदलने में केवल २५ सेकंड लगते हैं, और वह भी बिना स्क्रू ड्राईवर या प्लाइर्स के । लगाने के लिए प्लटेस को चढ़ा कर बस थोड़ा दबाना है ।
उन्होने यह प्लेट्स एक तरह की कारों में ही लगाने का निर्णय लिया । इसके लिए उन्होंने सबसे ज्यादा बिकने वाली “मारुती बलेनो” की ग्रे रंग की गाड़ियों को चुना । अखिलेश के पास भी वैसी ही गाड़ी थी ।
ग्रे रंग की मारुती बलेनो मिलने में उन्हें थोड़ी तकलीफ हुई, लेकिन वे मिल गयीं क्योंकि चार जवान एक ही साथ काम कर रहे थे । उन्हें इस का भय नहीं था कि वह पकड़े जायेंगे, क्योंकि अपनी कार की लाइसेंस प्लेट को हर दिन तो कोई देखता भी नहीं है, और वो भी पीछे वाली प्लेट को, न सबको अपनी प्लेट का नंबर ही याद होता है ।
उसके बाद चारों ने लाइसेंस-प्लेट्स लगाने का काम आपस में में बाँट लिया । लाइसेंस प्लेट्स, मेरे शहर, और ५० कि मी के दायरे के तीन और शहरों में, चार चार गाड़ियों में पीछे वाले लाइसेंस प्लेट के ऊपर लगा दी गईं । दूसरे शहरों में जाने का काम भी उन्होंने आपस में बाँट लिया । अंत में उन्होंने अखिलेश की गाड़ी में आगे और पीछे दोनों तरफ प्लेट के ऊपर फ़र्ज़ी प्लेट्स लगा दीं । इस तरह ४ शहरों में चार-चार गाड़ियों में पीछे वाली लाइसेंस प्लेट एक सी ही थी । इस तरह अखिलेश, अल्ताफ, गौरव और रोशन ने ४ शहरों में एक ही लाइसेंस-प्लेट की कुल १३ गाड़ियाँ तैयार कर लीं ।

— राम बजाज

पुलिस की मृगतृष्णा (भाग २)

पुलिस की मृगतृष्णा (भाग ३) शीघ्र ही प्रकाशित होगा । Landing Page पर “Must Read” के नीचे देखते रहिए ।

अस्वीकरण

इस कहानी की सारी घटनाएँ, सारे पात्र और स्थान काल्पनिक हैं ।  कहानी का उद्देश्य केवल मनोरंजन है ।  व्यंग्य, सामाजिक व्यवहार, प्रथाओं और सु-और कु- कृत्यों का वर्णन केवल साधन हैं ।

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