सर्जन का संगीत

सर्जन का संगीत

धरती पर झरते रहते हैं बीज निरंतर
कितने उनमें वृक्ष घनेरे/नन्हे पौधे बन पाते हैं?
उन्हें चाहिए क्षिति-जल-पावक-गगन-समीरण —
धरती — जो अपनी गोदी में उन्हें सँजोए;
जल उनको जीवन रस दे; पावक दे ऊर्जा;
दिशा-दिशा में बढ़ने को अवकाश गगन दे;
सक्रियता दे पवन उन्हें जीवंत बनाए —

पर इतना पाने पर भी क्या सारे बीये
लहर-बहर ऊँचे पूरे तरु बन पाते हैं?
हरे-भरे पल्लव, फूलों के गुच्छों वाली
शाखाओं दर शाखाओं को फैलाते हैं?
कुछ तो होता है ऐसा उनके अंदर जो —
अंतरतम से सर्जन का संगीत जगाता;
परम पिता के सृजन यज्ञ की दिव्य ज्वाल से
वह चिनगारी कोई विरला ही है पाता ।

— कुसुम बांठिया