कहत कबीर ४१

कबीरदासजी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

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करनी तज कथनी कथै, अज्ञानी दिन रात ।
ज्यूँ कूकर भूँकत फिरे, सुनी सुनाई बात ।।

ज्ञानी वे होते हैं जो अपने उपदेशों के वास्तविक अर्थ और मर्म को समझते हैं क्योंकि वे स्वयं उसके अनुरूप आचरण करते हैं । इस दोहे में कबीरदास जी ऐसे लोगों की आलोचना कर रहे हैं जो ज्ञान की बातें सुनकर भी न तो उनपर आचरण करते हैं न उनका अर्थ समझते हैं । वैसे भी स्वयं आचरण किए बिना बात का पूरा मर्म समझा भी नहीं जा सकता। किंतु ये लोग केवल सुने सुनाए उपदेशों को दिन रात इधर उधर बघारते फिरते हैं । ऐसे में इन अज्ञानियों की बातों की क़ीमत कुत्तों के भौंकने से अधिक नहीं हो सकती ।

मन के मते न चालिए, मन के मते अनेक ।
जो मन पर असवार है, सो साधू कोई एक ।।

इस दोहे में कबीरदास जी साधक के लिए आत्मानुशासन के महत्व पर बल देते हैं । उनका कहना है कि मनुष्य का मन स्थिर नहीं होता। वह कभी एक तो कभी दूसरी दिशा में दौड़ता फिरता है । साधक को इसीलिए मन की सलाह पर नहीं चलना चाहिए । उसे ज्ञान प्राप्ति के लक्ष्य पर पहुँचना है तो मन की भटकन पर लगाम लगाकर एकाग्र भाव से उसी लक्ष्य की साधना करनी चाहिए । मन को नियंत्रण में रखने का यह अनुशासन बड़ा कठिन है इसलिए गिने चुने लोग ही सच्चे साधु बन पाते हैं, अर्थात, साधना के मार्ग में सफल हो पाते हैं ।

  • कहत कबीर ०३

    ऊँचे पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय । // बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय ।…

  • कहत कबीर ०४

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  • कबीर दास जी से प्रेरित कुछ दोहे — १

    यह दोहे श्री अनूप जलोटा के गाये हुए “कबीर दोहे” की धुन पर सजते हैं Ego को न बढ़ाइए, Ego में है…

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