कहत कबीर ३०

साईं इतना दीजिए , जामें कुटुम समाय । ///// रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पीव ।

कबीरदासजी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

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साईं इतना दीजिए , जामें कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ , साधु न भूखा जाय।।

आम तौर पर लोग ईश्वर से धन संपत्ति, परिवार का सुख, ऐशो आराम, सत्ता आदि माँगते हैं, पर कबीर इस दोहे में ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें सिर्फ़ इतने साधन चाहिए जितने में उनके परिवार का भरण पोषण हो सके । इसके लिए भी वे अधिक संपत्ति नहीं, केवल इतना चाहते हैं कि परिवार को पेट भर भोजन मिल सके और इतनी गुंजाइश रहे कि किसी साधु, अर्थात सज्जन व्यक्ति, के आने पर उन्हें भी भोजन कराया जा सके । इस प्रार्थना में कबीर की सादगी, संतोष और लोभहीनता तो दिखती ही है, साथ ही सज्जन व्यक्ति के साथ बाँट कर खाने के सामाजिक गुण का भी परिचय मिलता है ।

रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पीव ।
देख पराई चूपड़ी , मति ललचावे जीव ।।

इस दोहे में भी कबीरदास जी संतोषी और निर्लोभी जीवन को अपनाने का उपदेश दे रहे हैं । वे मनुष्य को समझा रहे हैं कि यदि उसके पास अधिक धन या साधन नहीं हैं तो उसे रूखा सूखा खाना खाकर और ठंडा पानी पीकर ही संतुष्ट हो जाना चाहिए । दूसरों की घी से चुपड़ी रोटी, अर्थात वैभव विलासपूर्ण जीवन, देखकर वैसे ही जीवन के लिए ललचाना नहीं चाहिए । कबीरदास जी संतोषी जीवन को ही सुखी मानते हैं क्योंकि लालसा का अन्त नहीँ होता और अधिक से अधिक पाने की लालसा में मनुष्य का जीवन तनावपूर्ण होता जाता है और वह अपनी आत्मा की उन्नति के लिए न शक्ति बचा पाता है न समय ।

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