कहत कबीर २२

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं । // समदृष्टी सतगुरु किया, मेटा भरम विकार ।

कबीर संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीर के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

Read in English

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं ।
प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाहिं ।।

इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं, ‘जब ‘मैं’ था, अर्थात मुझे अपने अहं या स्वतंत्र अस्तित्व का बोध था, तब यहॉं हरि (अर्थात निराकार निर्गुण ब्रह्म) नहीं थे । अब ‘ब्रह्म’ हैं तो ‘मैं’ नहीं हूँ । प्रेम की गली इतनी सँकरी हैं कि उसमें केवल एक ही समा सकता है, दो नहीं । इसका आशय यह है कि जहाँ व्यक्ति अपना अहं छोड़कर, अपने अस्तित्व को भूलकर मन से प्रेमी के साथ एकाकार हो जाता है, वही स्थिति प्रेम कहला सकती है । भक्ति प्रेम का वह रूप है जिसमें ईश्वर से मिल जाने की आकांक्षा होती है; किंतु यह मिलन तभी सम्भव है जब व्यक्ति अपने अहं को, अर्थात अपने अलग और स्वतंत्र होने के भाव को बिसरा दे।
टिप्पणी:
कबीरदास जी अपनी रचनाओं में ईश्वर के लिए प्रायः पुराणों में आए नाम ‘हरि’ (विष्णु), ‘गोविंद’ (कृष्ण) ‘राम’ आदि लेते हैं । इन सबका कोई रूप माना जाता है और इनके गुणों का भी वर्णन होता है, लेकिन कबीर वास्तव में जिसकी उपासना करते हैं वह ब्रह्म अमूर्त है, उसका कोई रूप या आकार नहीं है न कोई गुण (विशेषताएँ) । वह परम चैतन्य है, एकमात्र सत्य है और सृष्टि के कण कण में व्याप्त है ।

समदृष्टी सतगुरु किया, मेटा भरम विकार ।
जहँ देखो तहँ एक ही, साहिब का दीदार ।।

कबीरदास जी मानते रहे हैं कि गुरु, और वह भी, सद्गुरु के बिना व्यक्ति को ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती । गुरु ही उसे संसार के मायाजाल से निकलने और ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग बताता है । इस दोहे में वे यही बात कह रहे हैं, ‘सद्गुरु ने मुझे सही दृष्टि – संसार को देखने-समझने का सही नज़रिया दिया है । मुझे समझ में आ गया है कि संसार माया द्वारा फैलाया गया भ्रम ही है । अब मुझे ईश्वर का भी ज्ञान हो गया है और माया से रचे इस जगत में भी मुझे हर तरफ़ उस परम आत्मा के ही दर्शन होते हैं ।
यहाँ ज्ञान प्राप्त होने के आनंद के साथ ही कबीरदास जी एक तरह से गुरु के प्रति कृतज्ञता भी व्यक्त कर रहे हैं।

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