कहत कबीर २०

कबीर ब्यास कथा कहै, भीतर भेदे नाहिं । // मानुस तेरा गुन बड़ा, मांस न आवे काज ।

कबीर संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीर के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

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कबीर ब्यास कथा कहै, भीतर भेदे नाहिं ।
औरन को परमोधता, गए मुहर कमाहिं ।।

कबीर संसार में धर्म के नाम पर फैले हुए पाखंड पर बराबर टिप्पणी करते रहते हैं । इस दोहे में वे पाखंडी व्यास, अर्थात कथावाचक, की आलोचना करते हुए कहते हैं कि वह धार्मिक कथाओं के माध्यम से जनता को धर्मोपदेश देता तो है पर स्वयं उसे उन कथाओं के भीतरी तत्व या उनमें निहित ज्ञान की विशेष जानकारी नहीं होती । अपनी छिछली जानकारी के आधार पर ही वह लोगों को उपदेश देता रहता है । कारण स्पष्ट ही यही है कि उसे न तो ज्ञान के प्रसार की लगन है न जनता के हित की । अन्यथा वह स्वयं पहले गहराई से अध्ययन द्वारा अपने को इस योग्य बनाता कि श्रोताओं तक उच्च कोटि का ज्ञान ज़्यादा से ज़्यादा अच्छी तरह पहुँचा सके । उसका उद्देश्य केवल पैसे कमाना है जिसकी ख़ातिर वह विश्वासी जनता को अपने विद्वान और ज्ञानी होने का झाँसा देता रहता है ।

मानुस तेरा गुन बड़ा, मांस न आवे काज ।
हाड़ न होत आभरण, त्वचा न बाजे बाज ।।

संसार में प्राणियों की उपयोगिता अनेक रूपों में होती है । कुछ प्राणियों को मारकर उनका मांस कुछ लोगों की भूख मिटाने के काम आता है; कुछ की हड्डियों का उपयोग मालाएँ, मनके आदि के रूप में आभूषण बनाने में होता है; किसी का चमड़ा ढोलक आदि वाद्यों पर मढ़ा जाता है और कला साधना के काम आता है। कबीरदास जी मनुष्य को संबोधित करते हुए कहते हैं कि वह इनमें से किसी भी उपयोग के लायक नहीं है। प्रश्न उठता है कि फिर उसकी सार्थकता क्या है? इसका भी उत्तर देते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य की सार्थकता उसके गुणों में है। अपने सद्गुणों के माध्यम से ही वह संसार की सेवा कर सकता है और अपना उद्धार भी। आशय यही है कि उसे अपने सद्गुणों के विकास पर ध्यान देना चाहिए।

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