भगति दुहेली राम की, जैसी खाँड़े की धार । // कोई एक पावै संत जन, जाके पाँचूँ हाथि।
कबीर संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीर के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।
— कुसुम बांठिया
भगति दुहेली राम की, जैसी खाँड़े की धार ।
जो डोले तो कटि पड़े, नहि तो उतरे पार ।।
कबीरदास जी ने संसार के चक्र से मुक्ति पाने के लिए ब्रह्म की भक्ति और साधना पर बहुत बल दिया है । उन्होंने यह भी बारंबार कहा है कि साधना का मार्ग बेहद कठिन है । इसके लिए दृढ़ संकल्प और आत्मानुशासन की ज़रूरत है । सांसारिक मोह – माया और भोग विलास उसकी साधना के मार्ग में रोड़े उपस्थित करते है । उनसे पार पाना बहुत ही कठिन है । इस दोहे में वे कहते हैं — राम की (अर्थात निर्गुण ब्रह्म की) भक्ति बहुत ही कठिन कार्य है और इसमें दृढ़ लगन के साथ ही एकाग्रता भी बहुत ज़रूरी है। यह उतनी ही कठिन है जितना तलवार की धार पर चलना । वहाँ यदि आप पूरा ध्यान लगाकर एकाग्र भाव से नहीं चले तो आप लड़खड़ा जाएँगे और धार आपको चीर देगी । किंतु आप यदि एकाग्र रहे और डगमगाए नहीं तो आप इस राह को पार करके मंज़िल — अर्थात मुक्ति तक पहुँच जाएँगे ।

कोई एक पावै संत जन, जाके पाँचूँ हाथि।
जाके पाँचूँ बस नहीं, ता हरि संग न साधि ।।
मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश होने के कारण उसके गुणों से युक्त और निर्मल होती है । किंतु संसार के मायाजाल में फँसकर वह अपने उस निर्मल स्वरूप को भूल जाती है। पाँच दुर्गुण माया के हथियार हैं जो मनुष्य को वश में करके सही मार्ग से भटका देते हैं । उसके ये शत्रु हैं — काम (इच्छाएँ, लालसाएँ), क्रोध, मद (अहंकार), मोह और लोभ (लालच) ।
इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि संत जनों में भी कोई इक्के दुक्के ही हैं जिन्होंने इन पाँचों(शत्रुओं) पर नियंत्रण पा लिया है । जो इन पाँचों को अपने क़ाबू में नहीं ला सके हैं, वे हरि अर्थात ईश्वर का संग नहीं पा सकते ।

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ऊँचे पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय । // बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय ।…
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कहत कबीर ०४
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कहत कबीर ०२
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