कहत कबीर १६

गुरु कुम्हार सिख कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट । // काल करै सो आज कर, आज करै सो अब्ब ।

कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

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गुरु कुम्हार सिख कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट ।
अंदर हाथ सहारि दे, बाहिर बाहिर चोट ।।

गुरु को कबीरदास जी ने बड़ा महत्व दिया है ।  गुरु ही है जो संसार के मायाजाल में उलझे व्यक्ति को इससे उबारने के लिए सही मार्ग दिखलाता है ।  गुरु के निर्देशन में ही शिष्य मुक्ति की साधना के मार्ग पर चलना सीखता है ।  शिष्य भटकता है तो गुरु आवश्यकता के अनुसार कभी प्रेम से तो कभी कठोर अनुशासन से उसे वापस राह पर लाता है ।  यह अनुशासन लोगों को कभी खटक भी सकता है पर वह शिष्य के हित के लिए ही होता है । इस दोहे में कबीरदास जी गुरु की तुलना कुम्हार से और शिष्य की तुलना उसके द्वारा बनाए जा रहे घड़े से कर रहे हैं।  कुम्हार जब घड़ा बनाता है तो उसे सम्पूर्ण रूप से सुंदर और सुडौल बनाने की कोशिश में उसकी सारी कमियाँ ढूँढ़ ढूँढ़कर निकाल देता है ।  आकृति की गढ़न सुधारने के लिए वह उसे बाहर से ठोकता पीटता भी है ।  पर साथ ही वह एक हाथ घड़े के अंदर रखकर उस चोट को सहारा भी देता चलता है ताकि घड़े को कोई नुक़सान न हो ।  गुरु भी ऊपर से तो शिष्य पर अनुशासन की कठोरता लादता है ताकि वह भटक न जाए और उसकी साधना में कोई खोट न रह जाए ।  पर अंदर से उसका स्नेह और सहानुभूति शिष्य के साथ रहती है ।  वह सदा शिष्य का कल्याण ही चाहता है ।  साधक शिष्यों को सदा इस बात का ध्यान रहना चाहिए।

काल करै सो आज कर, आज करै सो अब्ब ।
पल में परलय होयगी, बहुरि करैगो कब्ब ।।

हमलोग प्रायः कोई अच्छा काम करने की सोचते तो हैं पर अन्य सांसारिक कारणों या फिर आलस्य के कारण ही उसे बाद में करने के लिए टालते रहते हैं । कबीरदास जी का कहना है कि जब हम कुछ अच्छा करने की या साधना करने की सोचें तो हमें ढील न करके तुरंत उसमें जुट जाना चाहिए । हमें पता नहीं कि अगले ही पल क्या होने वाला है । हो सकता है, प्रलय हो जाए, यह दुनिया ही ख़तम हो जाए और हम वह सत्कर्म कर ही न सकें । इसलिए हम जब भी ऐसा कुछ करने की सोचें वह जल्दी से जल्दी कर लेना चाहिए हमने वह काम आगामी कल करने का सोचा है तो वह आज और अगर आज करने का सोचा है तो अभी ही कर लेना चाहिए।

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