कहत कबीर १२

गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय । // यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।

कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

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गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय ।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय ।।

कबीरदास जी गुरु को बहुत महत्व देते हैं । प्राणी संसार में आकर माया के फैलाए जाल में भटकता रहता है । उसे न अपने सच्चे ब्रह्मस्वरूप का ज्ञान होता है न माया से मुक्ति के मार्ग का । कई बार तो उसे यह बोध भी नहीं होता कि वह गलत मार्ग पर भटक रहा है । गुरु वह ज्ञानी व्यक्ति होता है जो उसे इस स्थिति का ज्ञान कराता है और मुक्ति का सही मार्ग दिखलाता है । इस दोहे में कबीरदास जी ऐसी स्थिति की कल्पना कर रहे हैं जब गुरु और गोविंद, अर्थात परमात्मा, दोनों ही उनके सामने खड़े हैं । उनके मन में दुविधा होती है कि पहले किसे प्रणाम करें । गुरु संसारी प्राणी हैं और परमात्मा वह परम तत्व है, गुरु जिसकी आराधना करते हैं । इस स्थिति में गुरु का भी पूज्य होने के कारण परमात्मा को ही पहले प्रणाम करना चाहिए । किंतु कबीर पहले गुरु को प्रणाम करके उनकी बलिहारी जाते हैं – उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं, क्योंकि गुरु न होते तो परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग भी उन्हें पता न चलता । गुरु ही सोई हुई आत्मा को जगाते हैं और उसे अपने सच्चे स्वरूप का ज्ञान करके मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं ।
टिप्पणी:
ध्यान देने की बात यह है कि वे ईश्वर के लिए ‘गोविंद’ नाम का प्रयोग कर रहे हैं । कई और भी दोहों में उन्होंने ब्रह्म के लिए ‘राम’, ‘मुरारी’ आदि अवतारों के नाम का प्रयोग किया है पर उनका तात्पर्य इन अवतारों से नहीं बल्कि निराकार निर्गुण ब्रह्म से रहा है ।

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिए जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।।

इस दोहे में कबीरदास ने मानव शरीर को विष की बेल माना है । जिस प्रकार ज़हर मनुष्य को नुक़सान पहुँचाता है और उसके जीवन को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार माया, मोह, लोभ, तृष्णा आदि भी उसे सच्चे सुख और मुक्ति के मार्ग से दूर भटकाकर उसके जीवन को निरर्थक बना देते हैं । जिस प्रकार कोई लता फैलती है उसी प्रकार ये दोष भी बढ़ते और फैलते जाते हैं । ये तमाम दुर्गुण उसके सांसारिक जीवन से जुड़े हैं जहाँ वह मनुष्य के रूप में देह धारण करके आता है । इसलिए कवि ने उसके तन को ही विष की बेल कहा है । दूसरी ओर इन्होंने गुरु को अमृत की खान माना है । जिस प्रकार अमृत में ज़हर के असर को समाप्त करके मृतक को भी फिर से जीवन देने की शक्ति होती है उसी प्रकार सद्गुरु के उपदेशों और मार्गदर्शन में वह क्षमता होती है कि वे विषय – वासना आदि दुर्गुणों में फँसे व्यक्ति को उनसे निकालकर सही मार्ग पर ले आएँ । इस मार्गदर्शन से मनुष्य अपने ब्रह्म स्वरूप को पहचानकर सच्चे आनंद की राह पर आ जाता है । यही कारण है कि कबीरदास जी गुरु को इतना महत्व देते हैं । उनके अनुसार गुरु का मूल्य हमारे प्राणों से भी बढ़कर है । गुरु को प्राप्त करने के लिए अगर सिर भी देना पड़े, अर्थात प्राणों की भी बाज़ी लगानी पड़े तो हमें हिचकना नहीं चाहिए ।

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