बन्दर की पूंछ
(पंचतंत्र की एक कहानी पर आधारित)
बहुत दिनों पहले जंगल में, रहते थे कुछ बन्दर
इधर कूदते, उधर फाँदते, खेला करते दिन भर
इसी झुण्ड मे था इक बन्दर, चंचल और शैतान
इसे छेड़ना, उसे तोड़ना, यही था उसका काम
एक दोपहर, वह सब बन्दर, पहुंचे एक जगह पर
कारीगर कुछ, बना रहे थे, एक मकान जहां पर
करते-करते काम सुबह से, थके हुए वह सब
भूख लगी थी उन्हे जोर की, खाना था उनको अब
छोड़ सभी औज़ार वहीं पर, घर की ओर चले वो
घर जाकर, खाना खाके, सोना था कुछ पल उनको
उसी समय वह चंचल बन्दर, उछल कूदता पहुंचा
औज़ारों को देख ख़ुशी से, मन भी उसका उछला
कुछ ही देर में, कुछ ही दूर पर, नजर पड़ी फिर उसकी
उसी जगह पर, मजदूरों ने जहां रखी थी लकड़ी
वहाँ बढ़ई ने एक ताने को आधा चीर रखा था
दो हिस्सों के बीच मे उसने, गुटका फँसा रखा था
इसे देख कर बन्दर के, मन में शैतानी सूझी
काम बढ़े कैसे लोगों का, यह करने की सोची
बैठ गया वह चिरे तने पर, गुटके को फिर पकड़ा
निकल जाये वह इसी लक्ष्य से, उसने गुटका खींचा
पहले तो बन्दर ने अपना, थोड़ा जोर लगाया
हिला न गुटका तो फिर उसने, अपना जोर बढ़ाया
एकाएक अचानक गुटका, खिसक के बाहर आया
पलक झपकते हुआ जो यह सब, बन्दर भाग न पाया
चिरी हुई लकड़ी के टुकड़े, जो थे अलग अभी तक
गुटके के हटते ही दोनों, आए पास अचानक
पड़ी हुई थी दुम बन्दर की, दो हिस्सों के बीच
फंसी पूंछ तो मुंह से बन्दर के, बस निकली चीख
ढली दोपहर धीरे-धीरे, अब बन्दर घबराया
मजदूरों के लौट आने का, समय पास जब आया
देख मजूरों को आते अब, बन्दर तो घबराया
फंसी पूंछ के कारण लेकिन, वह तो भाग न पाया
मजदूरों ने आकर औज़ारों की जो हालत पाई
बन्दर को देखा तो उनके, बात समझ में आई
इतनी मार पड़ी बन्दर को, तब उसने ये जाना
काम न हो जिस जगह में अपना, नाक न वहाँ घुसाना
— विनोद
Image Credit: Thomas Shahan 3, CC BY 2.0 <https://creativecommons.org/licenses/by/2.0>, via Wikimedia Commons