कहत कबीर ०७

तेरा साईं तुज्झ में, ज्यों पुहुपन में बास । // कहता तो बहुता मिला , गहता मिला न कोय ।

कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

Read in English

तेरा साईं तुज्झ में, ज्यों पुहुपन में बास ।
कस्तूरी का हिरण ज्यों, फिर फिर ढूँढ़त घास ।।

कस्तूरी एक बहुत ही सुगंधित पदार्थ है जो रक ख़ास प्रजाति के हरिणों की नाभि में उत्पन्न होता है। यह प्रजाति इसीलिए कस्तूरी मृग या कस्तूरी हरिण कहलाती है । कहते हैं कि उसकी तेज़ ख़ुशबू से आकर्षित होकर वह हरिण उसे आसपास घास में ढूँढ़ता हुआ भटकता रहता है । उसे सुध ही नही होती कि कस्तूरी उसके अपने शरीर में है ।
कबीरदास कहते हैं कि मनुष्य की स्थिति भी बिल्कुल ऐसी ही होती है । परमात्मा का निवास वास्तव में मनुष्य के अंतर में होता है किन्तु मनुष्य को इस बात की सुधि ही नही होती । वह ईश्वर की तलाश में बाहर इधर उधर भटकता रहता है । उसे वह कभी धर्म के आचारों —- पूजा, नमाज़, माला,जप – तप, मंदिर, मस्जिद आदि में ढूँढ़ता है और इन्हीं माध्यमों से उसे पाना चाहता है ।
वास्तव में उसे इन बाहरी साधनों से ध्यान हटाकर अपने हृदय में झाँकना चाहिए । यदि वह एकाग्र होकर अपने मन में परमात्मा का ध्यान करे, निरंतर उसी के बारे में सोचे, उसका जाप करे और मन की गहराई से उसे चाहे तो वह अवश्य ही ईश्वर को पा लेगा ।

कहता तो बहुता मिला , गहता मिला न कोय ।
जो कहता वह जान दे , जो नहिं गहता होय ।।

कबीरदास जी हिंदी के आम शब्दों में बोलचाल के जो प्रयोग ले आते हैं, उनसे उनके दोहों के अर्थ में एक अलग ही गहराई आ जाती है। उदाहरण के लिए इसी दोहे में ‘कहता’ का अर्थ है कहने/बोलनेवाला — अर्थात उपदेश देनेवाला । इसी प्रकार ‘गहता’ का अर्थ है ग्रहण करनेवाला — अर्थात उपदेश का आशय समझकर उस पर आचरण करनेवाला, अपने जीवन में उन उपदेशों को लागू करनेवाला ।
इस दोहे में इसी अंतर को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि संसार में कहनेवाले, अर्थात उपदेश देनेवाले तो बहुत मिल जाते हैं मगर उपदेशों को समझकर उनके अनुसार आचरण करनेवाला कोई भी नहीं मिलता । आगे कबीरदास जी इस विडंबना (irony) पर प्रकाश डालते हैं कि कई उपदेश देनेवाले ख़ुद ही उन उपदेशों के अनुसार नहीं चलते। अर्थात, उनके उपदेश केवल ज़बानी बातें हैं,उनमें अनुभव का सार नहीं है। कबीरदास जी के अनुसार ऐसे उपदेशकों को जाने देना चाहिए, अर्थात उनके उपदेशों को मान्यता नहीं देनी चाहिए । वे निरे पाखंडी होते हैं ।
आशय यही है कि उपदेश केवल कहने – सुनने की बात नहीं होते। उनका असली महत्व उन्हें अपने जीवन में उतारने में है। इसी संदर्भ में कबीरदास जी पाखंडी गुरुओं पर भी एक चुटकी लेते हैं।

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