कहत कबीर ०३

ऊँचे पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय । // बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय ।

ऊँचे पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय//बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय//

कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीर के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए ।

— कुसुम बांठिया

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ऊँचे पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय ।
नीचा होय सो भरि पिवै, ऊँचा प्यासा जाय ।।

पानी ऊँची जगह पर नहीं टिकता, सदा नीचे की ओर ही आता है और नीची जगह पर ही टिकता है। प्यास लगने पर जो व्यक्ति नीचे झुक जाता है, वह (अंजलि भर-भरके) जितना चाहे उतना पानी पीकर तृप्त हो सकता है। जो (अकड़ में) ऊँचा ही तना रहता है, उसे प्यासा ही रह जाना पड़ता है।
यहाँ ‘ऊँचा’ शब्द का प्रयोग कबीर अहंकारी व्यक्ति के लिए करते हैं जो किसी भी हाल में नम्र होना या झुकना नहीं चाहता। इस आदत के कारण उसे कई ऐसी सुविधाओं से वंचित रह जाना पड़ता है जो नीचे झुक सकने वाले अर्थात विनम्र व्यक्ति को सहज प्राप्त हो जाती हैं।
जो लोग स्वभाव से लचीले और नम्र होते हैं, वे स्थितियों के अनुसार अपने को ढाल लेते हैं और इसलिए उनके लक्ष्य सिद्ध भी हो जाते हैं। लेकिन जो अपनी (धन-संपत्ति, बुद्धिमानी आदि) की अकड़ में रहते हैं, अपने तौर तरीके बदलने को तैयार नहीं होते, वे जीवन में सफल नहीं हो सकते।

बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय ।
जो घर खोजा आपना , मुझसा बुरा न कोय ।।

कबीरदास जी कहते हैं कि जब मैं बुरों की तलाश में, अर्थात इंसान के अंदर की बुराइयों को देखने के लिए बाहर निकला तो मुझे कोई बुरा दिखा ही नहीं । किसी में भी मुझे बुराइयों के दर्शन नहीं हुए । फिर जब मैंने अपने ही घर में देखा तो पाया कि ख़ुद मुझमें ही इतनी बुराइयाँ हैं कि मुझसे बुरा और कोई हो ही नहीं सकता।
इस दोहे में संत या सज्जन की मनोवृत्ति का परिचय मिलता है । कवि का आशय है कि दूसरों की बुराइयों की छानबीन करने की जगह हमें ईमानदारी से स्वयं अपने अंदर की बुराइयों पर ध्यान देना चाहिए। क्योंकि तब हम उन्हें सुधारने की कोशिश भी करेंगे और बेहतर इंसान बन सकेंगे। (सज्जन व्यक्ति वे ही हैं जिन्होंने औरों की बुराई न देखकर स्वयं अपने को ही सुधारने की साधना की है।)

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