कहत कबीर ११

माया मुई न मन मुआ, मर मर गया सरीर । // चलती चाकी देखकर, दिया कबीर रोय ।

कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

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माया मुई न मन मुआ, मर मर गया सरीर ।
आसा तृस्ना ना मरी, मर गए दास कबीर।।

संसार में मनुष्य और उसके जीवन को कबीरदास जी माया द्वारा पैदा किया हुआ भ्रम ही मानते हैं । मनुष्य स्वयं परब्रह्म का ही हिस्सा है जो माया के भुलावे के कारण अपने को एक स्वतंत्र सत्ता समझने लगता है । अपने सच्चे स्वरूप को भूलकर वह सांसारिक भोग विलास, काम, क्रोध, मोह आदि में उलझकर रह जाता है । इनके प्रति उसकी आसक्ति इतनी प्रबल हो जाती है कि अंत समय भी वह परलोक या मुक्ति के स्थान पर इन्हीं की लालसा में लगा रहता है । कबीरदास जी कहते हैं कि उसके शरीर की मौत होती है लेकिन लेकिन माया से प्रेरित उसकी इच्छाएँ, सांसारिक सुख की आशाएँ, भोग विलास की ललक मानो शरीर त्यागने के बाद भी उसके मन, उसकी आत्मा से लिपटी रहती हैं । कबीर यहाँ कोई समाधान नहीं दे रहे हैं, बल्कि संसार की वास्तविक स्थिति का वर्णन करके लोगों को चेता रहे हैं । दोहे के अंतिम हिस्से में वे ऐसे संसारी लोगों के उदाहरण के रूप में ख़ुद अपना नाम ले रहे हैं (हालाँकि अपनी कई रचनाओं में वे इस बात का उल्लेख करते हैं कि वे स्वयं ऐसे मोह माया की निरर्थकता समझकर उनसे ऊपर उठ चुके हैं) ।

चलती चाकी देखकर, दिया कबीर रोय ।
दो पाटन के बीच में, बाक़ी बचा न कोय ।।

इस दोहे का शब्दार्थ है, अनाज पीसनेवाली चक्की को चलता देखकर कबीर रो दिया क्योंकि इसके दो पाटों के बीच में आकर सब कुछ पिस जाता है, कुछ भी बाक़ी नहीं बचता । इसके माध्यम से वे संसार के चक्र में फँसे मनुष्य की दुर्दशा पर प्रकाश डाल रहे हैं ।
इस संसार के कण कण में ब्रह्म व्याप्त है । स्वयं मनुष्य भी वास्तव में ब्रह्म का ही एक स्वरूप है, पर माया ने जगत में ऐसा भ्रमजाल फैलाया है कि वह इस सत्य को पहचान नहीं पाता और संसार को ही सत्य समझ लेता है । सांसारिक सुख सुविधा, भोग विलास, सत्ता आदि को वह सच्चा सुख मानकर इन्हें पाने की धुन में जुटा रहता है । इससे उसे न इस जग में शांति मिलती है न वह परलोक में सुख पाने के उपाय कर सकता है । कबीरदास को उसकी यह स्थिति चक्की में पिसते अनाज जैसी लगती है । पत्थर की चक्की में ऊपर नीचे दो पाट (चक्के जैसे हिस्से) होते हैं । जब अनाज डालकर हत्थे से चक्की को चलाया जाता है तो वह दोनों पाटों के बीच में आकर उनकी रगड़ से पिस जाता है । इसी तरह इस संसार में भौतिक सुखों की तलाश में मनुष्य तरह तरह के उपायों और स्थितियों में पिसता रहता है । अपने चिदानंद ब्रह्म स्वरूप की पहचान भी वह खो बैठता है । यह स्थिति कबीर को बहुत दुखद लगती है ।

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