कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूँढ़े बन माहि । // सोना, सज्जन, साधुजन, टूट जुड़ै सौ बार ।
कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।
— कुसुम बांठिया
कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूँढ़े बन माहि ।
ऐसे घट – घट राम है, दुनिया देखै नाहि ।।
इस दोहे का अर्थ समझने के पहले हमारे लिए यह समझना ज़रूरी है कि ‘राम’ से कबीर का आशय क्या है । कबीर के राम दशरथ के पुत्र राम नहीं हैं जिन्होंने विष्णु के अवतार के रूप में मानव जन्म लिया और पृथ्वी को राक्षसों के अत्याचारों से मुक्त कराया था। कबीरदास जी के राम निराकार (जिनका कोई आकार या रूप नहीं है) और निर्गुण (जो सांसारिक विशेषताओं से रहित शुद्ध चेतना pure consciousness) हैं । वे परमब्रह्म परमेश्वर हैं जो सारी सृष्टि के कण कण में बसे हैं । मृत्यु के बाद हमारी आत्माओं का विलय उन्हीं में हो जाता है।
इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं, कस्तूरी जैसा अमूल्य पदार्थ हिरण (कस्तूरी मृग) की नाभि में ही रहता है पर (अपने अज्ञान के कारण) उसे यह पता ही नहीं चलता और उसकी सुगंध से आकर्षित होकर उसे वह आसपास के जंगलों में ढूँढ़ता फिरता है। इसी प्रकार ईश्वर इस संसार के कण कण में – मनुष्य मात्र के अंतर में भी – बसा हुआ है, पर अपने अज्ञान के कारण हम इन बात को समझ नहीं पाते और बाहरी दुनिया में उसकी खोज में भटकते फिरते हैं । हम उसकी तलाश में विभिन्न धर्म संप्रदायों, पूजा स्थलों, कर्मकांड, जप-तप आदि के चक्कर में पड़े रहते हैं ।
आशय यह है कि बाहरी संसार के साधनों, क्रियाओं आदि से ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती । वह चूंकि हमारे अंतर में बसता है इसलिए ध्यान को अपने अंतर की ओर केंद्रित करके निरन्तर स्मरण और साधना से ही हमें उसका बोध हो पाएगा । इस सत्य को न समझ पाने पर हमारी गति कस्तूरी मृग जैसी ही हो जाएगी जो अपने अंदर की चीज़ की खोज में बाहर भटकता है और अपने पास होते हुए भी वह चीज़ उसे मिल नहीं पाती।

सोना, सज्जन, साधुजन, टूट जुड़ै सौ बार ।
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐकै धका दरार ।।
अपने कई दोहों में कबीरदास जी ने साधु या सज्जन व्यक्तियों के चरित्र की विशेषताओं पर प्रकाश डाला है । ‘साधु’ या ‘संत’ शब्द का प्रयोग वे केवल संसार त्यागी तपस्वियों के लिए नहीं करते बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए करते हैं जिसका चरित्र निर्मल हो और जिसके हृदय में लोक कल्याण की भावना सर्वोपरि हो ।
इस दोहे में कबीरदास जी सज्जनों और दुर्जनों के स्वभाव के एक मुख्य अंतर का उल्लेख करते हुए सज्जनों की विशेषता दिखलाते हैं । सोना बहुमूल्य ही नहीं मज़बूत भी होता है । सोने की वस्तु अगर किसी कारण से टूट फूट भी जाए तो उसे पिघलाकर फिर से उसके मूल रूप में लाया जा सकता है । सज्जन व्यक्ति या संत ऐसे ही होते हैं । अगर उनके चरित्र या व्यवहार में कोई ख़ामी आती है तो चेष्टा द्वारा उसका सुधार संभव है । उस ख़ामी को सुधारकर उनका चरित्र और व्यवहार पहले जैसा ही निर्मल हो जाता है । इसके विपरीत बुरे व्यक्तियों या दुर्जनों का स्वभाव कुम्हार द्वारा बनाए गए मिट्टी के घड़े जैसा होता है । वैसा घड़ा ज़रा से धक्के से ही टूटकर बिखर जाता है और फिर पहले जैसा रूप नहीं पा सकता । इसी प्रकार दुर्जन व्यक्तियों के स्वभाव में बड़ी आसानी से बुराइयाँ प्रवेश कर जाती हैं और हमेशा के लिए रह जाती हैं । वे सही मार्ग पर वापस लौटते ही नहीं ।

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