सुशीला की कहानी (१)
— राम बजाज
ये कहानी एक अभागे और गरीब परिवार की है जिसका पालन-पोषण एक अकेली महिला ने किया जिसका पति उसको और दो बच्चों को छोड़ कर अचानक इस दुनिया से चला गया और जाने से पहले बच्चों को एक प्यार भरा आलिंगन भी नहीं दे सका । इस कहानी के पात्रों की आकस्मिक रंक-से-राजा बनने की या एक multi-national corporation के CEO बनने की, एक बड़े rockstar बन जाने की या एक child prodigy (अद्भुत-विलक्षणरित बच्चे) की, जो ९ साल की उम्र में surgery करता है या जिसे ५ वर्ष की उम्र में सम्पूर्ण गीता कंठस्थ है, या एक Olympic स्तर का खिलाड़ी है । न ही यह कहानी है भारत की क्रिकेट या हॉकी team के खिलाड़ी या कैप्टेन की, या में विदेश में बसे हुए IT company के मालिक की । ऐसी कहानियां तो आपने बहुत ही पढ़ी होंगी, और आशा है आपको इनसे प्रेरणाएं भी मिली होंगी या आप इन्हें पढ़ कर शायद भूल भी गए हों । लेकिन ये कहानी उन लाखों, करोड़ो इंसानों के जैसी है जिनके जीवन में सिर्फ एक चीज़ की समानता है कि वे भी गरीब घराने में पैदा हुए थे । उसके अतरिक्त उनमें और ऊपर तथा-कथित लोगों की कहानियों में कोई मिलाप नहीं है । आपकी जिज्ञासा को पूर्ण करने में देर करने की क्षमा मांगते हुए यही कहना है कि यह कहानी उन करोड़ों परिवारों में से एक परिवार की है जो गरीब होते हुए भी, कैसे अकेली माँ के अटूट प्यार, प्रेरणा, कर्मठता, लगन और कड़ी मेहनत से भारत का एक आदर्श परिवार बनता है. इस कहानी के पात्र अत्यंत महात्वाकांक्षी तो हैं लेकिन परिवार के बच्चे अपनी माँ के पूरे भक्त हैं और अपनी सीमाओं को अच्छी तरह पहचान कर निरंतर प्रयास करने में इतने व्यस्त हैं कि उनके मस्तिष्क में नकारात्मकता का कोई स्थान ही नहीं है, न ही समय है । केवल प्रेम, उत्साह और अपने कर्तव्य को पूर्ण करने की अभिलाषाएं हैं । भारत में ही नहीं पूरे विश्व में ऐसे लोगों की कमी नहीं है । ऐसे लोगों से ही इस विश्व का पालन-पोषण हो रहा है । ये इस संसार के चालक हैं और हमारे आदर के सच्चे पात्र हैं । तो कृपया पढ़िए ---
इलाहाबाद जिले के सोराओं तहसील के अंतर्गत, इलाहाबाद (वर्तमान का प्रयागराज) से करीब ५० कि .मी. दूर, ७०० की जनसंख्या का एक छोटा सा गाँव है, अनेधी । अनेधी में एक गरीब किसान परिवार था, श्री श्याम लाल वर्मा का । श्याम लाल का एक भाई भी अनेधी में रहता था और दोनों अपने पिता की दी हुई १ एकड़ ज़मीन, जो उनके पिता विरासत में उनके लिए छोड़ गए थे, खेती कर अपना पालन-पोषण कर रहे थे । १ एकड़ ज़मीन की पैदाईश उनके दो घरों के लिए पर्याप्त नहीं थी, इसलिये वे अपने साथ वाली जमीन के जमींदार के लिए मजदूरी भी करते थे । जमींदार बहुत दयालु प्रवृत्ति का था और उन्हें मजदूरी के साथ, फसल होने पर अनाज भी देता था । श्याम लाल की अपने भाई के साथ अच्छी बनती थी और दोनों परिवार पास-पास २ छोटे से घरों में रहते थे । दोनों भाई बहुत धार्मिक संस्कारों के साथ बड़े हुए थे और हिन्दू धर्म में श्रद्धा रखते थे । इलाहाबाद के पास रहने के कारण उन पर इलाहाबाद की पवित्रता और भक्ति-भावना का असर तो होना ही था ।
जनवरी २१, २००७ के दिन इलाहाबाद में, अर्ध-कुम्भ के अवसर पर अथाह भीड़ थी । आस-पास और दूर-दूर से आये लाखों, शायद करोड़ों, श्रद्धालु प्रयाग में उमड़ पड़े थे । हर तरफ, गंगा, यमुना, शिव, विष्णु, गणेश और दूसरे देवताओं की आरतियों और भजनों से वातावरण इतना प्रिय, सुन्दर, अनुपम तथा कर्ण-प्रिय था कि मानों स्वर्ग में पहुँच गए हों । श्याम लाल और उनका भाई ऐसे अवसर को कैसे खोने देते ? वे सुबह ही अपने घर से निकल पड़े थे और ६ बजे प्रयाग पंहुच कर घाट पर एक पवित्र-स्थान पर स्नान करने के लिए जा रहे थे । इतनी सुबह भी भीड़ अथाह थी और धक्का-मुक्की कर के वे किसी तरह धीरे-धीरे अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहे थे । इतने में एक दमकल (fire brigade) की कर्कश ध्वनि ने सारा वातावरण कोलाहलयुक्त कर दिया । इस आवाज को सुनकर सारी भीड़ में भगदड़ मच गयी और भीड़ में सब एक दूसरे को बिना देखे, धक्का मारते हुए अपने बचने की चेष्टा करने लगे ।
इसी धक्का-मुक्की में श्याम लाल के सामने एक बूज़ुर्ग और उनके साथ और काफी लोग भी, गिर गए । भीड़ में लोग, गिरे हुए लोगों की मदद तो दूर, उनके ऊपर, बिना देखे, चढ़ कर भागने लगे । उन्हें कोई परवाह नहीं थी कि वे किसी के सिर पर या मुंह पर या शरीर पर आघात कर रहे थे । कितने ही लोगों ने जूते, चप्पल, खड़ाऊँ पहने श्याम लाल और गिरे हुए दूसरे लोगों के ऊपर से चल कर उन्हें लहू-लुहान कर दिया । थोड़ी देर बाद पुलिस ने व्यवस्था की और लोगों को हटा कर घायलों को अस्पताल पहुँचाया ।
श्याम लाल का भाई दूर जा चुका था और अपने भाई को चिल्ला-चिल्ला कर पुकार रहा था । उस बेचारे को क्या पता था कि श्याम लाल खलबली और भगदड़ में फँस गया है । श्याम लाल का भाई घाट पहुचने से पहले ही, ये सोच कर कि शायद वो अपने भाई से मिल सके, वापिस लौटने की चेष्टा कर रहा था, लेकिन भीड़ के धक्के की विपरीत दिशा में जाना तो और भी कठिन था । उसका प्रयास असफल रहा और धक्के लगने से वो भी गिर गया । वह किसी तरह उठ कर घाट की तरफ जाने के लिए मजबूर हो गया । वहां पहुँचने के बाद अपने भाई के बिना स्नान करने की इच्छा छोड़ कर वो पीछे की तरफ भागा और भाई को ढूँढने की कोशिश में बिना सोचे इधर-उधर भागता रहा । वो इतना घबरा गया था कि उसका शरीर और मस्तिष्क काम नहीं कर रहे थे । इसी चिंता और दौड़-भाग और थकान से उसे उल्टी आ गयी और वो बेहोश हो गया । जब लोगों ने देखा तो उसे पुलिस के हवाले कर दिया । पुलिस की गाड़ी में थोड़े विश्राम के बाद जब वह संभला तो उसने पुलिस से विनती की कि वो अब ठीक है और घर जाना चाहता है । लेकिन अक्सर जैसा होता है, घबराहट में, दुर्भाग्यवश, वो पुलिस को अपने भाई के लापता होने के बारे में कुछ भी बताना भूल गया ।
बाहर आ कर वो फिर अपने भाई की खोज में लग गया लेकिन कुछ पता नहीं लगा । वो निराश हो कर, दुःखी मन से अपने घर की ओर चल पड़ा जिससे वो घर वालों को बता सके और वे शायद अपने मित्रों से मिल कर श्याम लाल की खोज में सहायता कर सकें । उधर श्याम लाल अस्पताल में ज़िन्दगी और मौत से जूझ रहा था । उसकी हालत ख़राब होती जा रही थी । अस्पताल वाले उसकी स्थिति से बहुत हताश थे और कोशिश कर रहे थे की उसकी पहचान पता लगे । लेकिन श्याम लाल जब घायल हो कर गिरा था वो लगभग निर्वस्त्र था, क्योंकि वो इलाहाबाद-स्नान करने जा रहा था । उसने अपनी ID की चीज़ें एक मित्र के पिता, जो घाट से थोड़ी दूर एक किराने की दुकान चलाते थे, के यहाँ रख आया था । अस्पताल में डॉक्टरों के अथक प्रयत्न के बाद भी श्याम लाल की हालत बिगड़ती रही और ICU में ventilator पर लगाने के बाद भी आधे घंटे में उन्होने अंतिम साँस ली । अस्पताल वालों ने पुलिस को संपर्क किया और उनसे प्रार्थना की कि वे किसी तरह इस मरीज़ (श्याम लाल) की पहचान करें । पुलिस भी बहुत कोशिश करने के पश्चात हताश हो गयी और उन्हों ने दो रास्ते निकाले—एक, उन्होंने TV network वालों से संपर्क कर के एक news बुलेटिन जारी कर के श्याम लाल और दो और घायलों के बारे में बताया और उनके उनके चित्र दिखाए, दूसरा, उन्होंने यह ख़बर इलाहाबाद और आस-पास के इलाकों के सारे अख़बारों में चित्रों के साथ छपवाई । क्योंकि इलाहाबाद में ऐसी घटनाएँ इलाहाबाद होती ही रहती है, अख़बार ने इस ख़बर को बड़ी सुर्ख़ियों में नहीं छापा । उधर श्याम लाल के भाई और मित्रों के गुट ने भी बहुत ढूँढने के बाद ये निश्चय किया कि पुलिस को सूचना देनी चाहिए । पुलिस को तो उनका बड़ा इंतजार था और जब वे दोनों मिले तो उन्होंने चैन की,भले दुखभरी, साँस ली। इन सारी गतिविधियों में करीब २ दिन लग गए और अंत में श्याम लाल अपने मृत भाई को अनेधी लाया और यमुना जी के तट पर उनका अंत्येष्टि संस्कार किया । इस अंतिम संस्कार के समय वहां अनेधी और आस-पास के गाँव से लगभग ५०० लोग, जिसमे स्थानीय MLA भी शामिल थे, उमड़ पड़े । अग्नि-दहन के पश्चात MLA ने भी शोक प्रकट किया और ये सूचना दी कि सरकार ने उनकी प्रार्थना सुन ली थी और यह निश्चय किया है की श्याम लाल की विधवा और बच्चों के लिए सरकार उन्हें रू ५०,००० की संवेदन-सहायता प्रदान करेगी । श्याम लाल के भाई और सारी भीड़ ने इसके लिए उन्हें बहुत धन्यवाद दिया और इस सहायता को सादर स्वीकार किया ।
श्याम लाल की विधवा, सुशीला, बेचारी अकेली बहुत दुःख से किसी तरह जीवन बसर कर रही थी । वो बहुत प्रगतिशील और मेधावी थी और आगे पढ़ना चाहती थी, लेकिन उसके पिता ने ज़िद कर के ७ वीं के बाद उसकी शादी करा अपनी ज़िम्मेदारी से फुर्सत ले ली । परन्तु श्याम लाल की सहायता से वह पढ़ाई जारी रखने में सफल हुई थी । अब वह हाई-स्कूल के अंतिम वर्ष (१० वीं) में थी और बोर्ड की परीक्षाएं पास ही थीं । उसने यह निर्णय कर लिया था की वो किसी न किसी तरह परीक्षाएं जरूर देगी जिससे उस का वर्ष भर का परिश्रम व्यर्थ न जाये । पर दो बच्चों (अक्षय ८ साल और अरावल ५ साल) की देखभाल के साथ पढ़ाई करना भी बहुत कठिन था । उसके इस प्रयास में पड़ोस में रहने वाली सहेलियों ने बहुत मदद की और वो फर्स्ट-डिवीज़न से पास हुई । उसकी रूचि आगे पढ़ने की थी और वो अंत में एक accountant बनना चाहती थी।
थोड़े दिन तक जीवन चलता रहा लेकिन उसका अकेलापन न उसे भाया, न ही उसके देवर या उसके बच्चों को । उसकी प्रवृति ऐसी नहीं थी कि वह केवल बच्चों को पाले और अपना समय व्यर्थ करे । इसके अतरिक्त, अब सरकार की मदद की राशि भी कम हो रही थी । बातों-बातों में सुशीला और उसके देवर ने सोचा कि वो अपना मकान बेच कर उनके साथ रहे । देवर ने अपनी पत्नी से बातचीत की और उसको यह विचार बताया कि भाभी कुछ किराया भी देगी और, क्योंकि देवर के अब तक बच्चे नहीं थे, अरावल और अक्षय के साथ उसका मन बहला रहेगा । ख़ैर, ये निश्चित किया गया कि भाभी का मकान बेचा जायेगा और वो देवर के घर में रहेगी । मकान जल्दी ही बिक गया और सुशीला और बच्चे इस इन्तजाम से खुश थे । लेकिन थोड़े समय के पश्चात् जेठानी–देवरानी की आपस में नहीं बनी । इस का एक कारण था की सुशीला को पढ़ाई का शौक था और उससे बड़ा कारण कि “एक म्यान में दो तलवारें कब खुश हुई हैं?” । धीरे-धीरे अनबन ने लड़ाई का रूप लिया और सारा वातावरण कड़वा और कलुषित हो गया । अपनी बहिन की व्यथा सुन कर सुशीला के, इलाहाबाद में रहने वाले , भाई ने सुझाव दिया कि वो उसके पास आकर एक अलग मकान ले कर रहे । उसके स्कूल जाने के समय उसकी भाभी बच्चों की देखभाल करने में मदद करेगी । भाग्यवश, सुशीला भाई के घर से थोड़ी ही दूर एक छोटा मकान किराये पे लेकर वहां रहने लगी।
सुशीला इस बात में बहुत भाग्यशाली थी कि उसके पड़ोसी उससे बहुत मित्रवत थे और जितना हो सके उसकी मदद करते थे । वे उसकी पृष्ठभूमि और उन कठिनाइयों, जिनसे वह गुज़री रही थी, से परिचित थे । सुशीला ने उनकी मदद की बहुत सराहना की । जल्द ही, सुशीला की आर्थिक स्थिति तनावपूर्ण हो गई और उसने नौकरी करने का फैसला किया । नौकरी पाना आसान तो नहीं था । उसने बच्चों के कपड़े सीने और अमीर लोगों के घरों की सफाई कर रोज़मर्रा की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कुछ कमाना शुरु किया । उसने सुनिश्चित किया था कि वह अपनी पढ़ाई, कुछ विषयों में कॉलेज जाकर, और कुछ विषयों को पत्राचार द्वारा पूरा करेगी, लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका और उसने अपनी पढ़ाई स्थगित कर दी । लगभग चार महीने के बाद, घर में सफाई के लिए काम करते हुए, वो घर की मालकिन के साथ बातचीत कर रही थी और मालकिन ने उससे उसके अतीत के बारे में पूछा । सुशीला के दुर्भाग्य के बारे में सुनने के बाद, मालकिन को उस पर दया आई और उन्होंने सुझाव दिया कि वह घर की और अधिक ज़िम्मेदारियाँ ले और केवल सफाई के साथ वह खाना पकाने और कपड़े धोने, और अन्य घरेलू कार्यों की ज़िम्मेदारी ले ले तो उसके वो वेतन में अच्छी वृद्धि करेगी जिससे उसके के घर का पालन अच्छी तरह से हो सकेगा । इसके अतिरिक्त मालकिन ने कहा की जब वह वहां काम कर रही हो तो वह अपने छोटे बेटे को भी अपने साथ ला सकती है, पर जब वह स्कूल में पढ़ाई करे तब उसके लिए कुछ व्यवस्था करनी पड़ेगी । मालकिन के पति एक वैज्ञानिक थे, वे भौतिकी के प्रोफेसर थे, तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एक प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों में गिने जाते थे । साथ ही, वे बड़े दयालु स्वभाव के थे और उनकी समाज में बड़ी साख थी । प्रोफेसर और उनकी पत्नी अक्सर अपने काम से यात्राएं भी करते थे, और अब तक मालकिन और सुशीला का एक-दूसरे में इतना विश्वास उत्पन्न हो गया था कि वे अपना घर उसके संरक्षण में छोड़ कर जाने में भी हिचकिचाते नहीं थे। सुशीला प्रोफेसर के घर में काम करने के साथ डिस्टेंस लर्निंग से courses लेती थी और धीरे-धीरे इंटरमीडिएट (१२ वीं) के लिए तैयारी कर रही थी । वह अपनी पढ़ाई के साथ अपने बच्चों को भी पढ़ाती और उनका का बहुत ख़याल रखती थी । अरे, बच्चे तो उसकी जान थे और वो बच्चों की जान थी । वह यह सब मेहनत उनके भविष्य को उज्वल बनाने के लिए ही तो कर रही थी । उसने तो अपना जीवन, अपनी ख़ुशी और जीवन के आराम के बारे में सोचे बिना, उनके लिए ही समर्पित कर दिया था । बच्चे भी बड़े ही आज्ञाकारी और सुशील थे और अपनी माँ के निष्ठावान थे । वे बड़े मेधावी थे और अपनी पढ़ाई में पूरा ध्यान देकर सारे विषयों में अच्छे अंक लाते थे । सुशीला को इस बात का गर्व था और उसकी संतुष्टि का भी बड़ा कारण था । उसे तो ये सारी कठिन तपस्या एक यज्ञ के समान लगती थी और इस पूजा को वो बड़े ही प्रेम और श्रद्धा से निभा रही थी।
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