एक वृद्धाश्रम में हर शनिवार को एक पंडित जी कथा करते थे और, ज्ञान, ध्यान और सतो-गुण बढ़ाने की शिक्षा देते थे । सभा के बाद कुछ लोग छोटे झुंडों में बैठ कर चाय-पानी और नाश्ता करते और गप्पें-शप्पे मारते थे । ऐसे ही एक झुंड में एक दिन पंडित जी के शिक्षित “त्याग” करने में बारे में बात-चीत कर रहे थे । लोग अपने-अपने विचार प्रकट कर रहे थे लेकिन एक बुज़ुर्ग चुप -चाप बैठे सुन रहे थे । किसी ने उनको कहा “शुक्ला जी, आप भी कुछ बोलिए ।”

शुक्ला जी थोड़ी देर बाद बोले, “नहीं मैं ऐसे ही ठीक हूँ।”

दोस्तों की बहुत ज़िद के बाद शुक्ला जी बोले, “मैंने तो पंडित जी की “त्याग” वाली बात को बहुत गंभीरता से लिया है ।”

किसीने पूछा “कैसे?” तो शुक्ला जी बोले “आप सुनना चाहते हैं तो सुनिए”

“– मेरे मुंह मे जो ३२ दांत थे उन्हे मैं एक-एक कर के धीरे-धीरे त्याग रहा हूँ

–अपने बालों के कालेपन को त्याग कर सफेदी अपनाई, अब सारे बालों का ही त्याग कर रहा हूँ

–दूर तक देखना त्याग दिया, अब केवल पास वाली चीजें ही देखता हूँ

–कानों में धीमी-धीमी आवाज सुनने को त्याग दिया, अब केवल ऊंचा ही सुनता हूँ

–लो बी पी और लो शुगर को त्याग दिया

— तेज चलने की आदत को त्याग

–चाय को त्याग कर केवल शराब पीता हूँ

–तेजी से मूत्र विसर्जन करने को त्याग दिया, अब आराम से धीरे-धीरे करता हूँ

–तेज चलना भी त्याग दिया, अब धीरे-धीरे ही चलता हूँ

–जल्द-जल्द खाना खाना त्याग दिया, अब धीरे- धीरे खाता हूँ

–नींद त्याग दी, अब थोड़ा ही सोता हूँ

–फर्श पर बैठना त्याग दिया

अब आप ही बताओ मैं और क्या त्याग करूँ?”

— राम बजाज