कहत कबीर ५२

कबीरदासजी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

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सुख के संगी स्वारथी, दुःख में रहते दूर ।
कहैं कबीर परमारथी, दुःख-सुख सदा हजूर ।।

संसार में दो तरह के लोग होते हैं –– स्वार्थी, जिन्हें केवल अपने सुख और सुविधा की चिंता रहती है; और, परमार्थी, जिन्हें केवल दूसरों के हित, कल्याण और सुख का ख़याल रहता है। अपने सुख-सुविधा के बारे में वे सोचते ही नहीं। इस दोहे में कबीरदास जी इनका अंतर बताते हुए कहते हैं, स्वार्थी मित्र और परिजन केवल तभी तक आपका साथ देते हैं जब तक आपके पास सुख के साधन और उनलोगों को सुख देने की क्षमता होती है । दुख के दिनों में, जब आप उन्हें ऐशो आराम नहीं दे सकते, बल्कि स्वयं आपको उनकी सहायता की ज़रूरत होती है, वे आपका साथ छोड़कर कहीं दूर खिसक जाते हैं । इसके विपरीत, परमार्थी, अर्थात दूसरों की भलाई करनेवाले लोग सुख में तो साथ रहते ही हैं, दुःख और विपत्ति के समय भी साथ निभाने और मदद करने के लिए सदा हाज़िर रहते हैं । हमें सदा ऐसे सच्चे और निस्वार्थ व्यक्तियों की ही संगति करनी चाहिए ।

पहिले यह मन काग था, करता जीवन घात ।
अब तो मन हंसा भया, मोती चुनि-चुनि खात ।।

मनुष्य के मन में बुरी प्रवृत्तियाँ भी होती हैं और अच्छी भी । बुरी प्रवृत्तियों के वश में उसकी सोच और कार्य, दोनों ही बहुत नीची कोटि के होते हैं और प्रवृत्तियाँ शुभ होने पर उसके कार्य और व्यवहार भी अच्छे होते हैं । इसी बात को कबीरदास जी ने कौए और हंस के उदाहरण से समझाया है ।
कबीरदास जी कहते हैं, पहले मेरा मन कौए के समान था जो जीवों को मारकर खाता है (बुरे-बुरे और कष्टदायी काम करता है) । अब (साधना के कारण) मेरा मन निर्मल होकर हंस के समान हो गया है जो मोती का ही आहार करता है (श्रेष्ठ और विवेकपूर्ण काम ही करता है )।
कबीरदास जी यहाँ यह संकेत भी दे रहे हैं कि मनुष्य चाहे और साधना करे तो अपनी प्रवृत्तियों को सुधार कर दुष्टों की कोटि से संतों की कोटि में आ सकता है ।

  • कहत कबीर ०३

    ऊँचे पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय । // बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय ।…

  • कहत कबीर ०४

    बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर । // काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खानि…

  • कबीर दास जी से प्रेरित कुछ दोहे — १

    यह दोहे श्री अनूप जलोटा के गाये हुए “कबीर दोहे” की धुन पर सजते हैं Ego को न बढ़ाइए, Ego में है…

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