हरि गुन गावै हरषि के, हिरदय कपट न जाय । ////// बूझ सरीखी बात है, कहन सरीखी नाहिं।
कबीरदासजी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।
— कुसुम बांठिया
हरि गुन गावै हरषि के, हिरदय कपट न जाय ।
आपन तो समझै नहीं, औरहिं ग्यान सुनाय ।।
कबीरदास जी इस दोहे में ऐसे लोगों की आलोचना कर रहे हैं जो दिखावे के लिए बड़े ज़ोर शोर से ईश्वर का कीर्तन करते हैं किंतु उनका हृदय छल – कपट आदि बुरी वृत्तियों से भरा होता है । वे उस तथाकथित ज्ञानी के समान होते हैं जिसे स्वयं तो कुछ जानकारी होती नहीं, जो अज्ञानी होता है पर औरों को ज्ञान का उपदेश देता फिरता है ।
ज्ञानी व्यक्ति वह होता है जो पढ़ी और सीखी हुई बात को समझकर आत्मसात कर लेता है । वह औरों को जो उपदेश देता है वह केवल सुनी और रटी हुई बात नहीं बल्कि उसके ज्ञान और अनुभव का सार होती है । उसका हृदय भी अज्ञान और दुर्भावनाओं से मुक्त होता है । अज्ञानी व्यक्ति अर्थ समझे और शिक्षा की गहराई में पैठे बिना ही सुनी सुनाई बातों को रट लेता है और उन्हें समझाए या समझे बिना ही ज्यों का त्यों उगल देता है जिससे शिक्षार्थी को भी कोई लाभ नहीं होता । कबीरदास जी इस दोहे में ऐसे मिथ्या भक्तों और गुरुओं के प्रति ही लोगों को सावधान कर रहे हैं ।
बूझ सरीखी बात है, कहन सरीखी नाहिं।
जेते ज्ञानी देखिए, तेते संसै माहिं ।।
इस दोहे में कबीरदास जी संसार में सच्चे ज्ञानियों की कमी पर अफ़सोस प्रकट कर रहे हैं । पिछले दोहे (सं० १०१) में सच्चे ज्ञानी के लिए आवश्यक गुणों का उल्लेख हुआ है । कहने को दुनिया में ज्ञानी समझे जाने वाले लोगों की कमी नहीं है । कबीरदास जी मानते हैं कि ज्ञान मन को निर्मल करता है जिससे सत्य मनुष्य का सामने स्पष्ट हो जाता है और उसके मन में कोई संशय नहीं रह जाता । किंतु यहाँ कोई व्यक्ति संशय से मुक्त नज़र नहीं आता । ऐसे में वह ज्ञानी कैसे हो सकता है ? वे कहते हैं (दुख और लज्जा के कारण) यह बात कहने लायक तो नहीं है पर लोगों को स्वयं ही इसे समझ लेना चाहिए ।
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कहत कबीर ०४
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