कहत कबीर ४९

कबीरदासजी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

Read in English

कमोदिनी जलहरि बसै , चंदा बसै अकास ।
जो जन जाको भावता , सो ताही के पास ।।

इस दोहे में कबीरदास जी प्रेम के शुद्ध स्वरूप को अभिव्यक्त कर रहे हैं । कविताओं में , तालाबों में रात के समय खिलने वाले पुष्प कुमुदिनी और चंद्रमा को प्रेमिका और प्रेमी का प्रतीक माना गया है । इसी प्रतीक का प्रयोग करते हुए कबीर कहते हैं , कुमुदिनी (या कुमुद) तो धरती पर तालाबों में ही रहती है , जब कि चंद्रमा आकाश में रहता है । इस अपार दूरी के बावज़ूद कुमुदिनी चंद्रमा को देखते ही खिल जाती है जो उसके प्रेम का प्रमाण है । इससे यह भी सिद्ध होता है कि प्रेम के लिए शारीरिक रूप से या भौगोलिक रूप से नज़दीक़ होना ज़रूरी नहीं है । यह तो मन की भावना है । यदि सच्चा प्रेम है तो प्रियजन शारीरिक रूप से दूर होते हुए भी , मन में बसे होने के कारण निकट ही महसूस होते हैं ।
यही बात लौकिक प्रेम के साथ ही आध्यात्मिक प्रेम पर भी लागू होती है । जीवात्मा को परमात्मा अपने आसपास दिखाई नहीं देता किंतु यदि उसकी लगन सच्ची और आस्था दृढ़ है तो उसे हर समय ब्रह्म के निकट होने की अनुभूति होती रहती है ।

धीरे-धीरे रे मना , धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचै सौ घड़ा , रितु आए फल होय ।।

इस नीतिपरक दोहे में कबीरदास जी व्यक्ति को धैर्य का महत्व समझा रहे हैं । मनुष्य स्वभाव से अधीर होता है और अपनी चाहनाओं और आवश्यकताओं की जल्दी से जल्दी पूर्ति के लिए वह बहुत उतावला भी हो जाता है –– वे इच्छाएँ चाहे सांसारिक सुख की हों या ब्रह्मज्ञान की । कबीरदास जी समझा रहे हैं कि मनुष्य को हमेशा धीरज से काम लेना चाहिए । तभी उसका कार्य भी –– उचित समय पर –– सिद्ध होगा । जिस प्रकार माली के अनेक (सिंचाई आदि ) प्रयत्नों के बावज़ूद किसी वृक्ष पर एक निश्चित मौसम में ही फल आते हैं, उसी प्रकार उसका (लौकिक या आध्यात्मिक) उद्देश्य, उसकी उतावली और कठिन प्रयत्नों के बावज़ूद, उपयुक्त समय पर ही सिद्ध होगा । इसलिए उसे हड़बड़ाने या उद्विग्न होने के स्थान पर धैर्य और शांति से अपनी चेष्टाएँ और साधना ज़ारी रखनी चाहिए ।

  • कहत कबीर ०३

    ऊँचे पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय । // बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय । ऊँचे पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय//बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय// कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन…

  • कहत कबीर ०४

    बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर । // काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खानि । कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं,…

  • कबीर दास जी से प्रेरित कुछ दोहे — १

    यह दोहे श्री अनूप जलोटा के गाये हुए “कबीर दोहे” की धुन पर सजते हैं Ego को न बढ़ाइए, Ego में है दोष  जो Ego को कम करे, उसे मिले संतोष मानुष ऐसा चाहिए, प्रेम से हो भरपूर सेवा सब की जो करे, रहे अहम् से दूर  “कबिरा” नगरी प्रेम की, उसमे तेरा वास  उस नगरी के द्वार पर, लिखा है “कर विश्वास” — राम बजाज Image Credits: https://www.tentaran.com/happy-kabir-das-jayanti-wishes-status-images/

पद्य (Poetry)

Dear Rain

My love, my heart whispers to you,In your gentle drops, my soul renews.You bring a smile, a soft delight,Farmers’ hearts rejoice, with hope so bright.

Read More »
गद्य (Prose)

मेरी अज्जी और मैं (९/२१)

शुरुआत में जाइए मेरी अज्जी और मैं (१/२१) स्त्री परिवार की धुरी होती है; परिवार समाज की बुनियादी इकाई होता है; समाज मिलकर राष्ट्र को

Read More »
गद्य (Prose)

मेरी अज्जी और मैं (८/२१)

शुरुआत में जाइए मेरी अज्जी और मैं (१/२१) इसके शीघ्र बाद ही, शायद घर में नन्हे-नन्हे बच्चे होने के कारण, उनका तबादला सुम्बावांगा हो गया

Read More »