दोस्त, दोस्त ना रहा

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जीवन में हम कई लोगों से मिलते हैं, प्रत्येक की अपनी विलक्षणता होती है - आदतें, क्रियाएँ, विचार, जो समाज में "अपेक्षित" से अलग होते हैं ।  इनकी अभिव्यक्ति नकारात्मक भी हो सकती है और सकारात्मक भी ।  वह किसी को चोट नहीं पहुंचाती, बल्कि ऐसी स्थिति पैदा करती है जो मज़ेदार होती है ।  किसी को पूरे जीवन याद रहने लायक किस्सों की यह श्रृंखला ऐसी घटनाओं का संकलन है ।  इन घटनाओं में नायक विभिन्न पीढ़ियों, देशों और समाजों से हैं । इस उद्देश्य के लिए, और नायकों की पहचान को छिपाने के लिए, नायक को एक सामान्य नाम “बोका बॉब”  दिया गया है ।

दोस्त, दोस्त ना रहा

मुंबई का जीवन बहुत व्यस्त है – खासकर उन लोगों के लिए जिन्हें अपने काम के स्थान तक पहुंचने के लिए लोकल ट्रेनों से यात्रा करनी पड़ती है । भीड़ भरी ट्रेनों में हर दिन दो बार की यात्रा उन लोगों की वजह से कुछ आसान हो जाती है जिनसे रोज़ाना सफ़र के दौरान दोस्ती हो जाती है । उमड़ती जनसंख्या की धकापेल वाले इस महानगर में कोने-कोने को जोड़नेवाली लोकल ट्रेनें मौजूद हैं । काम पर निकले ज्यादातर लोग, एक तयशुदा समय की, एक तयशुदा लोकल ट्रेन के, तयशुदा डिब्बे में सफ़र करते हैं । इस तरह रोज़-रोज़ मिलते अपरिचित चेहरे भी दोस्त बन जाते हैं । इनमे से कुछ दोस्तों की मंडली ताश खेल कर समय गुज़ारती है । ये लोग शायद वे विरले सौभाग्यशाली हैं जिन्हें शुरुआती स्टेशन से चढ़ने के कारण हमेशा अपनी मनचाही सीटें मिल जाती हैं । बाकी लोग खड़े-खड़े अपने मित्रों, परिचितों, से बातों में मशगूल हो जाते हैं । मित्र – परिचितों वाले ये रिश्ते भी ट्रेन में ही बने होते हैं और सफ़र की कठिनाइयों को कुछ हल्का कर देते हैं । बोका बॉब के साथ मेरे रिश्ते की शुरुआत भी इसी तरह हुई थी ।
हम दोनों अपनी नौकरी के लिए अपने-अपने परिवारों से दूर मुंबई आये थे । एक प्रतिष्ठित “बी-स्कूल” से पास होकर निकलते ही, एक प्रतिष्ठित Consultancy Company (सलाहकार संस्था) में नौकरी का प्रस्ताव पाकर हम सातवें आसमान पर थे । परिवार वालों के साथ इस खुशी का जश्न मनाने के बाद, जब हम मुंबई पहुंचे, तो यहाँ की वास्तविकता ने हमें झकझोर दिया। MBA में पढ़े किसी भी विषय – पूर्वानुमान, बजट, जोखिम मूल्यांकन आदि ने हमें इस माहौल के लिए तैयार नहीं किया था । हमने जल्द ही महसूस किया, और इस तथ्य से समझौता भी कर लिया, कि रहने के लिए दक्षिण मुंबई में कोई भी जगह किराए पर लेने का सवाल ही नहीं है । ऊंची डिग्री हासिल करने और अच्छे वेतन के बावजूद, रहना हमें उपनगरों में ही होगा और ऑफिस आने-जाने के लिए लोकल ट्रेनों का ही सहारा लेना होगा । इस परिवेश में हमारी मदद प्रबन्धन संस्थान में पाए हुए किसी ज्ञान ने नहीं, बल्कि स्कूल की छोटी कक्षाओं में सीखी हुई शांति प्रार्थना, “हे प्रभु, जिन परिस्थितियों को हम बदल नहीं सकते, उन्हे हमें शान्त मन से स्वीकार करने की शक्ति दे” ने की ।

फिर भी, अनजान चेहरों के साथ भीड़ में धँसे-फँसे, हर स्टेशन पर अंदर चढ़ने-उतरनेवाले लोगों की लहरों से धक्के खाना, कोई बहुत सुखद अनुभव नहीं था । लेकिन निराशा का यह भाव बहुत लंबे समय तक नहीं रहा। कुछ ही दिनों में मुझे समझ में आ गया कि मैं इस स्थिति में अकेला नहीं हूँ । भीड़ में कई अन्य लोगों को भी मैंने इसी तरह की दुर्दशा से गुज़रते देखा । मुंबई की उमस भरी गर्मियों में, पूरी आस्तीन की शर्ट और टाई पहने लोगों को देख बेचैनी और परेशानी तो कम नहीं होती थी लेकिन मन को सुकून मिलता था यह देख कर कि दूसरों को भी ऐसी ही तकलीफ हो रही है । धीरे-धीरे इनमें से कुछ लोगों से पहचान हो गई और बात-चीत का सिलसिला भी शुरू हो गया । काम-काज की बात के अलावा, ऑफिस के किस्सों, मालिकों और उनके व्यक्तित्वों, संगठनों और उनकी कमियों पर चर्चा आदि ने यात्रा का समय बिताने में तो मदद की ही, साथ ही उचित किराए पर साझा आवास खोजने में भी सहायता की । तक़दीर से बोका बॉब, एक अन्य व्यक्ति और मुझे उचित किराए पर एक ठीक-ठाक घर मिल गया और जल्द ही हम वहां बस गए । सवेरे, निकलने की जल्दी में, हम कुछ भी पहले से पका-पकाया नाश्ता कर लेते थे, दोपहर का भोजन ऑफिस में होता था पर रात का खाना हम, बारी-बारी से, “घर” आ कर ही बनाते थे ।

जैसे-जैसे समय बीतता गया, हम एक-दूसरे को बेहतर तरीके से जानने लगे । बोका बॉब बहुत भुलक्कड़ भी था, और इसलिए, बहुत बार वह अपने को कई अजीबोग़रीब परिस्थितियों में पाता था । उसके व्यक्तित्व का एक दूसरा अनोखा पक्ष भी था जिससे वह विभिन्न परिस्थितियों, विशेष कर प्रतिकूल परिस्थितियों, को बिना हिचके, ठंडे दिमाग और शांति के साथ संभाल लेता था । उसे ऐसे प्रसंगों को हमारे साथ साझा करने में कोई हिचक भी नहीं होती थी । ऐसे किस्से आमतौर पर लोकल ट्रेन में हमारी यात्रा को इतना दिलचस्प बना देते थे कि उसकी दूरी हमें महसूस ही नहीं होती थी ।
एक दिन, जब हम अपनी वापसी यात्रा के लिए स्टेशन पर मिले, तो बोका बॉब परेशान दिखाई दे रहा था । उसने जल्द ही घोषणा की “सरजी, आज मैं दोपहर का खाना नहीं खा सका और भूख के मारे मेरी जान निकली जा रही है । मैं घर पहुंचने तक पेट में डालने के लिए सैंडविच जैसा कुछ ले कर आता हूँ । अपनी नियमित “तेज़ लोकल” के छूट जाने के डर से, हमने उसे रोकने की कोशिश की । अगर यह छूट जाती, तो अगली ट्रेन — एक धीमी, ज्यादा भीड़ भरी, ज्यादा समय लेनेवाली ट्रेन, आधे घंटे बाद थी । लेकिन एक बार जब बोका बॉब का मन बन गया तो उसे बदलना असंभव था । हमने उसे चेतावनी दी कि अगर वह ट्रेन छूटने के समय तक न आया तो हम उसका इंतजार नहीं करेंगे । उसने जवाब दिया, “अरे सरजी, चिंता न करें । मैं ट्रेन छूटने के 5 मिनट पहले ही वापस आ जाऊंगा । हम सब साथ ही चलेंगे”, और चल दिया सैंडविच की खोज में ।
जैसे-जैसे घड़ी की सूइयाँ आगे बढ़ रही थीं, हम बोका बॉब की लापरवाह प्रकृति से वाकिफ होने के कारण, घबराने लगे थे । हमारा नियमित डिब्बा था रेल की पहली बोगी । इसी के दरवाजे के करीब खड़े हम ट्रेन में चढ़ती हुई भीड़ में, बोका बॉब को खोज रहे थे । ट्रेन का भोंपू बजा और वह धीरे-धीरे रेंगने लगी । हमारे लिए यह निर्णय का क्षण था – ट्रेन पर चढ़ना और अपने दैनिक क्रम को बहाल रखना या बोका बॉब की प्रतीक्षा करना । मानसिक रूप से इस स्थिति के लिए बोका बॉब को कोसते हुए हमने अंततः अपने दोस्त को धोखा नहीं देने और उसे अज्ञात भीड़ के साथ अकेले यात्रा करने के लिए न छोड़ने का फैसला किया । और कोई अपेक्षा नहीं थी, लेकिन हमारे मन में, इस बलिदान के कारण अपनी महानता का अहसास तो था ही । ट्रेन धीरे-धीरे रफ़्तार पकड़ रही थी । हम बड़ी बेचैनी से एक तरफ ट्रेन के गुजरते हुए डिब्बों को देख रहे थे तो दूसरी तरफ बड़ी आशा से उस भीड़ में बोका बॉब को खोज रहे थे, लेकिन हमारे मन में अगली भीड़ भरी, धीमी ट्रेन में यात्रा कर, देर से घर पहुंच कर और फिर खाना बनाने – खाने के दुःस्वप्न करवटें ले रहे थे । तब तक ट्रेन ने इतनी गति पकड़ ली थी कि उसमे दौड़ कर चढ़ना भी नामुमकिन था । हताश होकर हम पीछे हट आये, अगली ट्रेन का इंतज़ार करने । अचानक आखिरी बोगी के दरवाजे पर एक जाना-पहचाना चेहरा नज़र आया, जिसे देखते ही हमारी सारी चिंतायें प्रबल गुस्से में बदल गईं। वहाँ बोका बॉब, चेहरे पर शांत और संतुष्ट भाव के साथ, एक डबल सैंडविच से एक बड़ा सा टुकड़ा काट कर खा रहा था ।

घर की हमारी लंबी और विलंबित यात्रा में, देर, भीड़ या भूख का कोई विचार हमारे दिमाग में नहीं आया क्योंकि वह सारे समय बोका बॉब को मारने के अनूठे तरीके खोजने के लिए ओवरटाइम काम कर रहा था । घर पहुंचे तो अपार्टमेंट का दरवाजा अंदर से बंद था । हमें दरवाजा खटखटाना पड़ा। थोड़ी देर के बाद किंवाड़ खुले । वहां बोका बॉब परम शांत मुद्रा में खड़ा था। इससे पहले कि हम कुछ हरकत में आते या बोल पाते, उसने कहा, “अरे सरजी, आपको इतनी देर कैसे हो गई? आपकी ट्रेन छूट गई थी क्या?” फिर, जवाब की प्रतीक्षा किए बिना, वह पीछे मुड़ा और यह कहते हुए अपने कमरे की तरफ चला गया कि “सरजी ! जल्दी से कुछ पकाइये-शाकाइये । मेरा तो भूख से दम निकाल रहा है ।”

— निशांत बाँठिया

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