कहत कबीर ३३

कबीरदासजी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

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लंबा मारग, दूर घर, बिकट पंथ बहु मार ।
कहो संतो क्यों पाइए, दुर्लभ हरि दीदार ।।

कबीरदास जी मानते हैं कि संसार के माया द्वारा रचे गए भ्रम से मुक्ति के लिए ब्रह्म की साधना ज़रूरी है, पर साथ ही उन्हें इस बात की भी जानकारी है कि इस साधना की प्रक्रिया बड़ी ही कठिन है । इस दोहे में वे संतों को संबोधित करते हुए यही कहते हैं कि साधना का मार्ग बहुत लंबा और ख़तरों से भरा है । इसमें प्राणों का संकट है और ईश्वर का घर दूर है । इस प्रकार ईश्वर के दर्शन अर्थात उनसे मिलन बहुत ही मुश्किल है ।
इस मार्ग की कठिनाइयाँ कबीरदास जी लोगों को डराने के लिए नहीं बल्कि इन्हें पार करने के संकल्प से भरने के लिए बता रहे हैं । जो कायर हैं या जिनकी भक्ति केवल दिखावे की है, वे इस मार्ग पर बढ़ेंगे ही नहीं । इसके विपरीत, जिनकी आस्था गहरी है और जो सचमुच मुक्ति के आकांक्षी हैं, वे इन कठिनाइयों के लिए तैयार होकर और भी मज़बूत इरादे के साथ साधना के मार्ग पर बढ़ेंगे ।

कबीर निर्भय राम भज, जब लगि दीवै बाति ।
तेल घट्या, बाती बुझी, तब सोवै दिन राति ।।

कबीरदास जी इस दोहे में उनलोगों को संबोधित कर रहे हैं जो सांसारिक व्यस्तताओं या आलस्य के कारण ईश्वर की साधना टालते जाते हैं । कबीरदास जी कहते हैं — जब तक तुम्हारे दिये में बाती जल रही है, अर्थात जब तक तुम जीवित हो, निःशंक होकर ईश्वर की साधना करो । अपनी आत्मा की मुक्ति के लिए चेष्टा करने का अवसर तुम्हें जीते जी ही मिल सकता है । जब यह दिया बुझ जाएगा, अर्थात जीवन का अंत हो जाएगा तब तुम्हारे पास सोने के लिए समय ही समय होगा ।

  • कहत कबीर ०३

    ऊँचे पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय । // बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय ।…

  • कहत कबीर ०४

    बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर । // काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खानि…

  • कहत कबीर ०२

    निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी, छवाय । // जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप । कबीरदास जी…

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