मेरी उम्र लगभग 13–14 साल रही होगी जब मेरे ननिहाल में सुखदेई नाम की रसोईदारिन रहती थी । महीने दो महीने में जब भी मेरा जाना वहाँ होता वह अक्सर एक पोस्टकार्ड लेकर मेरे पास पहुँच जाती – “बाईसा म्हारी चिट्ठी लिख द्यो ।” चिट्ठी सामान्य रूप से ही शुरू होती – “मुकाम कलकत्ता सूँ सुखदेई को राम-राम पहुँचे ।” यह राम-राम तीन चार लोगों को अलग अलग लिखवाया जाता – “___ नै राम राम, ___नै राम राम, __….”।
फिर समाचार – “म्हैं अठै राजी खुशी हाँ । थे भी राजी खुशी होओला ।’ कुछ और समाचारों के बाद – ” फलाना जी ने म्हारो सेवा सलाम कै दीजो, ढिकाना ने म्हारो सेवा सलाम कै दीजो, हकाना नै म्हारो . . . . . ” – सेवा सलाम की यह सूची बढ़ती जाती । पत्र पढ़नेवाला चूँकि कोई अल्पशिक्षित ही होता उसकी सुविधा की ख़ातिर जो पत्र बड़े बड़े अक्षरों में शुरू किया गया था, उसके अक्षर क्रमशः छोटे होते जाते –
यहाँ तक कि कार्ड के हाशियों पर चींटियों से रेंगने लगते । मैंने एक बार कहा, “सुखदेई जी, सारे नाम एक बार में बता दीजिए, सबको इकठ्ठा ही सेवा सलाम लिख दूँगी”। वे छूटते ही बोलीं, “अरे बाईसा, याँन थोड़ी होवै है ।” प्यार जताने और शिष्टाचार का तक़ाज़ा था कि हर एक को अलग-अलग याद किया जाए ।
आज स्थिति कितनी बदल गई है ! एक दूसरे का हालचाल पाने को तरसने की ज़रूरत नहीं रह गई । फ़ोन पर टैप करो और संदेश भेजो । सुविधा बढ़ी है तो संदेशों की संख्या और विस्तार में भी बहुत बढ़ोतरी हुई है । ज़रूरत बेज़रूरत, अपनों को और परायों को संदेश पर संदेश भेजे जा रहे हैं । पर आत्मीयता? अक्सर किसी भी अवसर पर हम – ज़्यादा मेहनत करें तो – कुछ शब्द टाइप कर लेते हैं, नहीं तो इमोजी से ही काम चल जाता है । हमारे एक बंधु तो जन्मदिन की शुभकामनाएँ HBD टाइप करके ही दे देते हैं । मन में ख़याल आता है कि ये हमें याद करके, हमारी छवि मन में लेकर शुभकामनाएँ भेज रहे हैं या पहले से चली आती कतार में ही बिना सोचे समझे अपनी हाज़िरी लगा रहे हैं । न भेजने का उल्लास रहा न पाने की उत्कंठा ।
चलिए यही समय की गति है । आत्मीय रिश्तों की आत्मीयता तो बरकरार है पर संदेशों के रूप और माध्यम बदल गए हैं । आख़िर पोस्टकार्ड-लिफ़ाफ़ों तक भी तो हम बादल, हंस, कबूतरों, हरकारों आदि को पीछे छोड़कर ही पहुँचे थे ।
— कुसुम बांठिया