मैंने ग़ालिब से पूछा, “ग़ालिब ये शायरी किस बला का नाम है?”
“ए नामुराद, क्यों मुझे यार के सपनों से जगाता है”
मैं भी ज़िद्दी ठहरा—“ग़ालिब मुझ पर रहम कर, दिल की पुरानी ख़्वाहिश है”
ग़ालिब जागे और अर्सों में पहली बार मुस्कराए और बोले—
“शायरी बतलाने की चीज़ नहीं है, ये तो रूह से महसूस करने की ख़ता है
शायरी मय और माशूक़ा के ग़म और मज़े की
एक मदभरी अजूबा कहानी है,
शायरी ऐसी अदा है जिसमे ख़ुदा की भी मुद्दालित (आपत्ति) नहीं
शायरी ऐसा मज़ेदार जज़्बात है, जो ख़ुदा को ख़ुद भी नसीब नहीं,
क्यों कि यह ख़ुदा की सिर्फ़ एक आशिक़ को आतिया (वरदान) है
शायरी रूह से निकली एक आह है जो दिलो दिमाग़ को सुरूर (खुशी) में तड़पाती है
शायरी एक कच्चे धागे सी है, जो नाज़ुक खींचा-खींची से तो
मस्तानी हो जाती है
पर माशूक़ा या आशिक़ के दिल से आह निकले तो
बेमौत मर जाती है
अब ग़ालिब को सोने दे खुदा के बंदे,
क्यों कि नींद परवरदिगार की सबसे क़ीमती हादिया (उपहार) है”
— राम बजाज