लाडू, लावन, लापसी, पूजा चढ़े अपार । ///// न्हाए धोए क्या हुआ , जो मन मैल न जाय ।
कबीरदासजी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।
— कुसुम बांठिया
लाडू, लावन, लापसी, पूजा चढ़े अपार ।
पूजी पुजारी ले गया, मूरत के मुँह छार ।।
कबीरदास जी धर्म में सदा बाहरी दिखावों और कर्मकांड के विरोधी रहे हैं । इस दोहे में वे पूजा के समय भगवान के निमित्त पकवानों का भोग चढ़ाने की रीति पर व्यंग्य कर रहे हैं । पूजा में भगवान के लिए असंख्य व्यंजन चढ़ाए जाते हैं पर पत्थर की मूर्ति तो उन्हें खा नहीं सकती । पूजा के बाद तो पुजारी ही उन्हें अपने घर ले जाता है । मूर्ति के हिस्से में तो केवल हवा में उड़ती धूल और राख ही आती है । कबीरदास जी ईश्वर की आस्था के नाम पर चलती ऐसी प्रथाओं का विरोध करते हैं जिनका असली धर्म से कोई लेना देना नहीं होता बल्कि उनका लाभ दूसरे लोग ही उठाते हैं ।
न्हाए धोए क्या हुआ , जो मन मैल न जाय ।
मीन सदा जल में रहे , धोए बास न जाय ।।
इस दोहे में भी कबीरदास जी धर्म से जोड़ दिए गए बाहरी आचारों की आलोचना कर रहे हैं । कई धर्मों में विशेष अवसरों पर — या वैसे भी — ‘पवित्र नदियों, सरोवरों, समुद्रों आदि में स्नान को बहुत महत्व दिया गया है । कबीरदास जी कहते हैं, स्नान करने से तो केवल शरीर का मैल धुलता है । अधर्म को प्रेरणा देनेवाली बुरी प्रवृत्तियाँ मन में बसती हैं । शरीर धोने से मन की सफ़ाई नहीं होती । ऐसे में पुण्य की ख़ातिर ‘पवित्र’ स्नान करने का भी कोई मतलब नहीं होता । आगे वे कहते हैं कि उस जल में अगर शुद्ध करने की क्षमता होती तो सदा उसी जल में रहने वाली मछलियों के शरीर से निकलने वाली गन्ध क्यों समाप्त नहीं होती? ऐसे उदाहरणों से वे इस तरह के रिवाजों और आचारों की व्यर्थता पर प्रकाश डालते हैं ।
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कहत कबीर ०१
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