कहत कबीर १३

साधू ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय । // जाति न पूछो साधु की , पूछ लीजिए ज्ञान ।

कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

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साधू ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय ।
सार सार को गहि रहे, थोथा देहि उड़ाय ।।

कबीरदास जब ‘साधु/साधू/साधो’ शब्दों का व्यवहार करते हैं तो उनका आशय संन्यासी, जोगी या फ़क़ीरों से नहीं होता ।उनके लिए ‘साधु’ का अर्थ है, सज्जन व्यक्ति — जिसका मन निर्मल हो और आचरण शुद्ध । वह चाहे संसारी गृहस्थ हो पर उसका मन बुरे और कुटिल भावों से मुक्त हो और लोक कल्याण के लिए समर्पित हो ।
इस दोहे में कबीर साधु या सज्जन की एक विशेषता का उल्लेख कर रहे हैं । उसमें अच्छे और बुरे की पहचान होनी चाहिए और साथ ही अच्छी बातों, आदतों, कामों आदि को अपनाकर जो कुछ बुरा है उसे दूर कर देने की प्रवृत्ति भी । इसके लिए वे सूप का उदाहरण देते हैं । सूप टोकरी की ही तरह बाँस की पट्टियों से बुनी हुई ट्रे जैसा छिछला पात्र होता है । फसल की कटाई के बाद अनाज के साथ बहुत सा कूड़ा–कचरा, खर पतवार भी आ जाता है । उस कचरे को अलग करके अनाज को साफ़ करने के लिए उसे सूप में डालकर फटका जाता है । इस क्रिया से कूड़ा करकट हल्का होने के कारण उड़कर अलग हो जाता है और उपयोग के लायक साफ़ सुथरा और ठोस अनाज सूप में रह जाता है । कबीरदास कहते हैं कि साधु का स्वभाव भी सूप जैसा होना चाहिए जो संसार के जीवन में मिलने वाली तरह तरह की चीज़ों (या स्थितियों ) में से सार या अच्छी और उपयोगी वस्तु को अपना ले और बेकार, निरर्थक और हानिकारक तत्वों को जीवन से दूर कर दे ।

जाति न पूछो साधु की , पूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तरवार का , पड़ी रहन दो म्यान ।।

साधुओं, सज्जनों या ज्ञानियों की विशेषताओं की चर्चा में कबीर इस बात पर बल देते हैं कि उनकी मुख्य विशेषता है – ज्ञान, न कि उनकी जाति, वंश आदि । वे जातिभेद के कट्टर विरोधी थे । उनका मानना था कि सभी व्यक्ति संसार में मनुष्य के रूप में ही जन्म लेते हैं । उनके शरीर, शरीर की क्रियाएँ, विकास आदि सब एक प्रकार से ही होते हैं, इसलिए उनमें परस्पर भेद मानना और उसके आधार पर अलग अलग तरह का व्यवहार करना ग़लत है । जाति, धर्म अदि के भेद ऊपर से लादे गए हैं और वे भी संसारी प्राणियों के द्वारा । ईश्वर ने तो सबको एक सा ही पैदा किया है।
इसी विचारधारा के अनुरूप कबीरदास का कहना है कि किसी व्यक्ति की विशेषताओं का निर्धारण उसकी जाति के आधार पर नहीं बल्कि उन्हीं विशेषताओं के आधार पर होना चाहिए। जैसे म्यान तलवार के ऊपर उसे ढके रहती है पर वह ऊपरी चीज़ है । ख़रीदनेवाला उसकी क़ीमत म्यान के आधार पर तय नहीं करेगा बल्कि इस बात पर तय करेगा कि तलवार की अपनी गुणवत्ता क्या है । इसी प्रकार किसी साधु या ज्ञानी पुरुष का मूल्यांकन उसके ज्ञान के आधार पर होना चाहिए । सिर्फ़ इसी आधार पर उसे अधिक महत्व नहीं देना चाहिए कि वह ऊँची जाति से है । इसी तरह ज्ञानी होते हुए भी अगर वह तथाकथित नीची जाति का हो तो उसका तिरस्कार नहीं करना चाहिए । उसके बारे में कोई भी धारणा बनाने में जाति पर ध्यान देना ही नहीं चाहिए।

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